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दा नो॑ अग्ने बृह॒तो दाः स॑ह॒स्रिणो॑ दु॒रो न वाजं॒ श्रुत्या॒ अपा॑ वृधि। प्राची॒ द्यावा॑पृथि॒वी ब्रह्म॑णा कृधि॒ स्व१॒॑र्ण शु॒क्रमु॒षसो॒ वि दि॑द्युतः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dā no agne bṛhato dāḥ sahasriṇo duro na vājaṁ śrutyā apā vṛdhi | prācī dyāvāpṛthivī brahmaṇā kṛdhi svar ṇa śukram uṣaso vi didyutaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दाः। नः॒। अ॒ग्ने॒। बृ॒ह॒तः। दाः। स॒ह॒स्रिणः॑। दु॒रः। न। वाज॑म्। श्रुत्यै॑। अप॑। वृ॒धि॒। प्राची॒ इति॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। ब्रह्म॑णा। कृ॒धि॒। स्वः॑। न। शु॒क्रम्। उ॒षसः॑। वि। दि॒द्यु॒तः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:2» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:21» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्वान् ! आप (नः) हम लोगों के लिये (बृहतः) बहुतः भोग करने के पदार्थों को (दाः) दीजिये (वाजम्) ज्ञान (दुरः) द्वारों के (न) समान (श्रुत्यै) श्रवण से (सहस्रिणः) असंख्यात सुखरूपी अङ्गयुक्त पदार्थों को (दाः) दीजिये और (अपा वृधि) उनको प्रकट कीजिये तथा (प्राची) जो पहिले से वर्त्तमान (द्यावापृथिवी) द्यावापृथिवी को (ब्रह्मणा) धन से युक्त (कृधि) कीजिये (उषसः) दिनों को (शुक्रम्) शीघ्रकारी (स्वः) सुख के (न) समान (वि दिद्युतः) विशेष प्रकाशित कीजिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो अग्नि के तुल्य असंख्य सुख द्वारों के समान विद्यामार्ग और यथा समय कार्यों से दिवसों को संयुक्त करते हैं, वे सूर्य और पृथिवी के समान अन्नादि के संयोग से सुखी होते हैं ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने त्वं नो बृहतः पदार्थान् दाः वाजन्दुरो न श्रुत्यै सहस्रिणो दा अपा वृधि च प्राची द्यावापृथिवी ब्रह्मणा कृधि उषसः शुक्रं स्वर्ण विदिद्युतः कृधि ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दाः) देहि (नः) अस्मभ्यम् (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान (बृहतः) महतो भोगान् (दाः) ददाति (सहस्रिणः) असंख्यातसुखाङ्गयुक्तान् (दुरः) द्वाराणि (न) इव (वाजम्) ज्ञानम् (श्रुत्यै) श्रवणेन। अत्र सुब्व्यत्ययेन तृतीयार्थे चतुर्थी। (अप) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (वृधि) वृणु (प्राची) प्राग्वर्त्तमाने (द्यावापृथिवी) (ब्रह्मणा) धनेन सह (कृधि) कुरु (स्वः) (न) इव (शुक्रम्) आशुकरम् (उषसः) दिवसान् (वि) (दिद्युतः) द्योतमानान् ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। येऽग्निवदसङ्ख्यानि सुखानि द्वारवद्विद्यामार्गं यथासमयं कार्य्यैर्दिवसान् संयुञ्जन्ति ते सूर्यपृथिवीवदन्नादियोगेन सुखिनो भवन्ति ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे अग्नीप्रमाणे असंख्य सुख, द्वाराप्रमाणे विद्या (ज्ञान) मार्ग व योग्य काळी कार्य करून दिवस घालवितात ते सूर्य व पृथ्वीप्रमाणे (प्रकाशित होऊन) अन्न इत्यादीच्या योगाने सुखी होतात. ॥ ७ ॥