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तमु॒क्षमा॑णं॒ रज॑सि॒ स्व आ दमे॑ च॒न्द्रमि॑व सु॒रुचं॑ ह्वा॒र आ द॑धुः। पृश्न्याः॑ पत॒रं चि॒तय॑न्तम॒क्षभिः॑ पा॒थो न पा॒युं जन॑सी उ॒भे अनु॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tam ukṣamāṇaṁ rajasi sva ā dame candram iva surucaṁ hvāra ā dadhuḥ | pṛśnyāḥ pataraṁ citayantam akṣabhiḥ pātho na pāyuṁ janasī ubhe anu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। उ॒क्षमा॑णम्। रज॑सि। स्वे। आ। दमे॑। च॒न्द्रम्ऽइ॑व। सु॒ऽरुच॑म्। ह्वा॒रे। आ। द॒धुः॒। पृश्न्याः॑। प॒त॒रम्। चि॒तय॑न्तम्। अ॒क्षऽभिः॑। पा॒थः। न। पा॒युम्। जन॑सी॒ इति॑। उ॒भे इति॑। अनु॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:2» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:20» मन्त्र:4 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जो विद्वान जन (जनसी) सब पदार्थों को उत्पन्न करनेवाली द्यावापृथिवी अर्थात् सूर्य पृथिवी के सम्बन्ध से मानुषी सृष्टि के अन्नादि पदार्थ उत्पन्न होते हैं (उभे) दोनों वा (पाथः) जल (पायुम्) उसके पीनेवाले को (न) वैसे वर्त्तमान तथा (रजसि) ऐश्वर्य के निमित्त (उक्षमाणम्) सींचा हुआ (स्वे) अपने (दमे) कला घर में (चन्द्रमिव) सुवर्ण के समान (आसुरुचम्) अच्छे प्रकार प्रकाशमान (पृश्न्याः) वा अन्तरिक्ष के बीच (ह्वारे) जिस व्यवहार में कुटिल गति को पदार्थ प्राप्त होते हैं, उसमें (पतरम्) गमन को प्राप्त होता (चितयन्तम्) और पदार्थों को इकठ्ठा कराता (तम्) उस अग्नि को (अक्षभिः) इन्द्रियों के साथ (अन्वादधुः) अनुकूलता से स्थापन करते हैं, वे पदार्थवेत्ता होते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे जल पियासे को तृप्त करता है, वैसे कार्यों में संप्रयुक्त किया हुआ अग्नि ऐश्वर्य के साथ जनों को युक्त करता है ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

ये विद्वांसो जनसी उभे पाथः पायुन्न वर्त्तमानं रजस्युक्षमाणं स्वे दमे चन्द्रमिव सुरुचं पृश्न्या ह्वारे पतरं चितयन्तं तमग्निमक्षभिरन्वादधुस्ते पदार्थविदो जायन्ते ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) (उक्षमाणम्) सिञ्चन्तम् (रजसि) ऐश्वर्ये (स्वे) स्वकीये (आ) समन्तात् (दमे) गृहे (चन्द्रमिव) हिरण्यमिव। चन्द्रमिति हिरण्यना०। निघं० १। २॥ (सुरुचम्) सुष्ठु प्रकाशमानम् (ह्वारे) ह्वरन्ति कुटिलां गतिं गच्छन्ति पदार्थां यस्मिँस्तस्मिन् (आ) (दधुः) दधति (पृश्न्याः) अन्तरिक्षस्य मध्ये (पतरम्) पतन्तम् (चितयन्तम्) (अक्षभिः) इन्द्रियैः (पाथः) उदकम् (न) इव (पायुम्) यः पिबति तम् (जनसी) जनयित्र्यौ द्यावापृथिव्यौ (उभे) (अनु) ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथोदकं पिपासितं तर्पयति तथा कार्येषु संप्रयोजितोऽग्निरैश्वर्येण सह जनान् योजयति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे जल तृषार्थांना तृप्त करते तसे कार्यात योग्य प्रकारे वापर केलेला अग्नी लोकांना ऐश्वर्ययुक्त करतो. ॥ ४ ॥