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अ॒वं॒शे द्याम॑स्तभायद्बृ॒हन्त॒मा रोद॑सी अपृणद॒न्तरि॑क्षम्। स धा॑रयत्पृथि॒वीं प॒प्रथ॑च्च॒ सोम॑स्य॒ ता मद॒ इन्द्र॑श्चकार॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avaṁśe dyām astabhāyad bṛhantam ā rodasī apṛṇad antarikṣam | sa dhārayat pṛthivīm paprathac ca somasya tā mada indraś cakāra ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒वं॒शे। द्याम्। अ॒स्त॒भा॒य॒त्। बृ॒हन्त॑म्। आ। रोद॑सी॒ इति॑। अ॒पृ॒ण॒त्। अ॒न्तरि॑क्षम्। सः। धा॒र॒य॒त्। पृ॒थि॒वीम्। प॒प्रथ॑त्। च॒। सोम॑स्य। ता। मदे॑। इन्द्रः॑। च॒का॒र॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:15» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:15» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अवंशे) अविद्यमान जिसका मान उस वंश के समान वर्त्तमान अन्तरिक्ष में (द्याम्) प्रकाश को (अस्तभायत्) रोकता (बृहन्तम्) बढ़ते हुए ब्रह्माण्ड को (रोदसी) सूर्य लोक भूमि लोक और (अन्तरिक्षम्) आकाश को (अपृणत्) प्राप्त होता (पृथिवीम्) पृथिवी को धारण करता (सोमस्य) उत्पन्न हुए जगत् के बीच (मदे) आनन्द के निमित्त (ता) उक्त कर्मों को (पप्रथत्) विस्तारता है उसको (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर क्रम से (चकार) करता है (सः) वह तुम लोगों को उपासना करने योग्य है ॥२॥
भावार्थभाषाः - कोई नास्तिकता को स्वीकार कर यदि ऐसे कहे कि जो ये लोक परस्पर के आकर्षण से स्थिर हैं, इनका कोई और धारण करने वा रचनेवाला नहीं है, उनके प्रति विद्वान् जन ऐसा समाधान देवें कि यदि सूर्यादि लोकों के आकर्षण से ही सब लोक स्थिति पाते हैं, तो सृष्टि के अन्त में अर्थात् जहाँ कि सृष्टि के आगे कुछ नहीं है, वहाँ के लोकों का और लोकों के आकर्षण के बिना आकर्षण होना कैसे सम्भव है। इससे सर्वव्यापक परमेश्वर की आकर्षण शक्ति से ही सूर्यादि लोक अपने रूप और अपनी क्रियाओं को धारण करते हैं। ईश्वर के इन उक्त कर्मों को देख धन्यवादों से ईश्वर की प्रशंसा सर्वदा करनी चाहिये ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या योऽवंशे द्यामस्तभयाद्बृहन्तं ब्रह्माण्डं रोदसी अन्तरिक्षं चापृणत्पृथिवीं धारयत्सोमस्य मदे ता पप्रथदेतत्सर्वं इन्द्रः क्रमेण चकार स युष्माभिरुपासनीयः ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अवंशे) अविद्यमाने वंश इव वर्त्तमानेऽन्तरिक्षे (द्याम्) प्रकाशम् (अस्तभायत्) स्तभ्नाति (बृहन्तम्) महान्तम् (आ) (रोदसी) सूर्यभूमी (अपृणत्) पृणाति व्याप्नोति (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (सः) (धारयत्) धरति (पृथिवीम्) (पप्रथत्) विस्तारयति (च) (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतो मध्ये (ता) तानि (मदे) आनन्दे (इन्द्रः) परमेश्वरः (चकार) करोषि ॥२॥
भावार्थभाषाः - केचिन्नास्तिक्यमाश्रित्य यद्येवं वदेयुर्य इमे लोकाः परस्पराकर्षणेन स्थिता एषां कश्चिदन्यो धारको रचयिता वा नास्तीति तान्प्रत्येवं विद्वांसः समादध्युः−यदि सूर्य्याद्याकर्षणेनैव सर्वे लोकाः स्थितिं लभन्ते तर्हि सृष्टेः प्रान्तेऽन्याकर्षकलोकाभावादाकर्षणं कथं सम्भवेत्तस्मात्सर्वव्यापकस्य परमेश्वरस्याकर्षणेनैव सूर्यादयो लोकाः स्वस्वरूपं स्वक्रियाश्च धरन्त्येतानि जगदीश्वरकर्माणि दृष्ट्वा धन्यवादैरीश्वरः सदा प्रशंसनीयः ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - एखादा नास्तिक म्हणेल की हे गोल परस्पर आकर्षणाने स्थिर आहेत, त्यांना धारण करणारा कोणी नाही. विद्वानाने त्याचे समाधान असे करावे, की जर सूर्य इत्यादी गोलांच्या आकर्षणानेच सर्व गोल स्थित असतील तर सृष्टी प्रलयाच्या वेळी गोलांच्या आकर्षणाशिवाय आकर्षण होणे कसे शक्य आहे? यामुळे सर्वव्यापक परमेश्वराच्या आकर्षणशक्तीनेच सूर्य इत्यादी गोल आपले रूप व आपल्या क्रिया धारण करतात. ईश्वराच्या वरील कर्मांना पाहून धन्यवाद मानून त्याची प्रशंसा करावी. ॥ २ ॥