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अध्व॑र्यवो॒ यो दि॒व्यस्य॒ वस्वो॒ यः पार्थि॑वस्य॒ क्षम्य॑स्य॒ राजा॑। तमूर्द॑रं॒ न पृ॑णता॒ यवे॒नेन्द्रं॒ सोमे॑भि॒स्तदपो॑ वो अस्तु॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhvaryavo yo divyasya vasvo yaḥ pārthivasya kṣamyasya rājā | tam ūrdaraṁ na pṛṇatā yavenendraṁ somebhis tad apo vo astu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध्व॑र्यवः। यः। दि॒व्यस्य॑। वस्वः॑। यः। पार्थि॑वस्य। क्षम्य॑स्य। राजा॑। तम्। ऊर्द॑रम्। न। पृ॒ण॒त॒। यवे॑न। इन्द्र॑म्। सोमे॑भिः। तत्। अपः॑। वः॒। अ॒स्तु॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:14» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:14» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अध्वर्यवः) राजसम्बन्धी विद्वान् जनो (यः) जो (दिव्यस्य) प्रकाश में उत्पन्न हुए (वस्वः) धन को वा (यः) जो (पार्थिवस्य) पृथिवी में विदित (क्षम्यस्य) सहनशीलता में उत्तम उसके बीच (वः) तुम्हारे लिये (राजा) राजा (अस्तु) हो (तम्) उस (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् को (यवेन) यव अन्न से जैसे (ऊर्दरम्) मटका को वा डिहरा को (न) वैसे (सोमेभिः) सोमादि ओषधियों से (पृणत) पूरो परिपूर्ण करो (तत्) उस (अपः) कर्म को प्राप्त होओ ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वान् जन धान्य अन्न से मटका वा डिहरा को जैसे वैसे विद्यार्थियों की बुद्धियों को विद्या और उत्तम शिक्षा से तृप्त करते हैं, वे राजा को सेवने योग्य हों ॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अध्वर्यवो यो दिव्यस्य वस्वो यः पार्थिवस्य क्षम्यस्य मध्ये वो राजाऽस्तु तमिन्द्रं यवेनोर्दरन्न सोमेभिः पृणत तदपः प्राप्नुत ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अध्वर्यवः) राजसम्बन्धिनः (यः) (दिव्यस्य) दिवि भवस्य (वस्वः) वसोर्धनस्य (यः) (पार्थिवस्य) पृथिव्यां विदितस्य (क्षम्यस्य) क्षमायां साधोः (राजा) (तम्) (ऊर्दरम्) कुसूलम् (न) इव (पृणत) पूरयत। अत्रापि दीर्घः (यवेन) (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवन्तम् (सोमेभिः) ओषधिभिः (तम्) (अपः) (वः) युष्मभ्यम् (अस्तु) भवतु ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्वांसो धान्येन कुसूलमिव विद्यार्थिनां बुद्धीर्विद्यासुशिक्षाभ्यां पिपुरति ते राजसेव्याः स्युः ॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे माठ धान्याने भरतात तसे विद्वान लोक विद्यार्थ्यांच्या बुद्धीला विद्या व उत्तम शिक्षणाने तृप्त करतात. त्यांचा राजाने स्वीकार करावा. ॥ ११ ॥