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सृ॒जो म॒हीरि॑न्द्र॒ या अपि॑न्वः॒ परि॑ष्ठिता॒ अहि॑ना शूर पू॒र्वीः। अम॑र्त्यं चिद्दा॒सं मन्य॑मान॒मवा॑भिनदु॒क्थैर्वा॑वृधा॒नः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sṛjo mahīr indra yā apinvaḥ pariṣṭhitā ahinā śūra pūrvīḥ | amartyaṁ cid dāsam manyamānam avābhinad ukthair vāvṛdhānaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सृ॒जः। म॒हीः। इ॒न्द्र॒। याः। अपि॑न्वः। परि॑ऽस्थिताः। अहि॑ना। शू॒र॒। पू॒र्वीः। अम॑र्त्यम्। चि॒त्। दा॒सम्। मन्य॑मानम्। अव॑। अ॒भि॒न॒त्। उ॒क्थैः। व॒वृ॒धा॒नः॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:11» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:3» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शूर) निर्भय (इन्द्र) सूर्य के समान वर्त्तमान ! जैसे सूर्य (अहिना) मेघ (परिष्ठिताः) सब ओर से स्थित किये हुए वा (पूर्वीः) पहिले सञ्चित हुए जलों को (अवाभिनत्) छिन्न-भिन्न करता है वैसे (उक्थैः) उत्तम वचनों से (ववृधानः) बढ़े हुए आप (याः) जो (महिः) बड़ी-बड़ी वाणी हैं उनको (सृजः) उत्पादन कीजिये उनसे (चित्) ही (अमर्त्यम्) आत्मा से मरण धर्म रहित (मन्यमानम्) माननेवाले (दासम्) सेवक को (अपिन्वः) तृप्त कीजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य के समान उत्तम वाणियों को वर्षाते हैं, और सेवकों को प्रसन्न करते हैं, वे उत्तम प्रतिष्ठित होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे शूर इन्द्र यथा सूर्योऽहिना परिष्ठिताः पूर्वीरपोवाऽभिनत्तथोक्थैर्ववृधानस्त्वं या महीः सृजस्ताभिश्चिदमर्त्यं मन्यमानं दासमपिन्वः ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सृजः) उत्पादय (महीः) महत्यो वाचः (इन्द्र) सूर्यवद्वर्त्तमान (याः) (अपिन्वः) पिन्व (परिष्ठिताः) परितः स्थिताः (अहिना) मेघेन (शूर) निर्भय (पूर्वीः) पूर्वं भूताः (अमर्त्यम्) आत्मना मरणधर्मरहितम् (चित्) अपि (दासम्) सेवकम् (मन्यमानम्) (अव) (अभिनत्) भिनत्ति (उक्थैः) उत्तमवचनैः (वावृधानः) वर्धमानः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्यवत्सुवाचो वर्षन्ति सेवकान् प्रसादयन्ति ते सुप्रतिष्ठिता भवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य मेघांचा वर्षाव करतो तसे जे उत्तम वाणीचा वर्षाव करतात व सेवकांना प्रसन्न करतात त्यांना उत्तम प्रतिष्ठा प्राप्त होते. ॥ २ ॥