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त्वम॑ग्ने॒ राजा॒ वरु॑णो धृ॒तव्र॑त॒स्त्वं मि॒त्रो भ॑वसि द॒स्म ईड्यः॑। त्वम॑र्य॒मा सत्प॑ति॒र्यस्य॑ सं॒भुजं॒ त्वमंशो॑ वि॒दथे॑ देव भाज॒युः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne rājā varuṇo dhṛtavratas tvam mitro bhavasi dasma īḍyaḥ | tvam aryamā satpatir yasya sambhujaṁ tvam aṁśo vidathe deva bhājayuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। राजा॑। वरु॑णः। धृ॒तऽव्र॑तः। त्वम्। मि॒त्रः। भ॒व॒सि॒। द॒स्मः। ईड्यः॑। त्वम्। अ॒र्य॒मा। सत्ऽप॑तिः। यस्य॑। स॒म्ऽभुज॑म्। त्वम्। अंशः॑। वि॒दथे॑। दे॒व॒। भा॒ज॒युः॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:1» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:17» मन्त्र:4 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब चलते हुए विषय में राजशिष्य के कृत्य का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) अतीव मनोहर (अग्ने) सूर्य के समान समस्त अर्थों का प्रकाश करनेवाले ! जो (त्वम्) आप (धृतव्रतः) सत्य को धारण किये स्वीकार किये हुए (वरुणः) श्रेष्ठ के समान (राजा) शरीर, आत्मा और मन से प्रतापवान् (भवसि) होते हैं (दस्मः) दुःख और दुष्टों के विनाश करनेवाले (ईड्यः) प्रशंसा के योग्य (मित्रः) प्राण के मित्र होते हैं (यस्य) जिस राज्य के (सम्भुजम्) सम्भोग करने को (त्वम्) आप (अर्यमा) न्यायकारी (सत्पतिः) सज्जन और सदाचारों के पालनेवाले होते हैं (अंशः) प्रेरणा करनेवाले (त्वम्) आप (विदथे) संग्राम में (भाजयुः) अर्थी-प्रत्यर्थियों की व्यवस्था से पृथक्-पृथक् करनेवाले होते हैं, इससे हम लोगों के राजा हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - जिससे सत्य को धारण कर असत्य का त्याग किया जाता और मित्र के समान सबके लिये सुख दिया जाता है, वह सत्यसन्धि दुष्टाचार से अलग हुआ सत्य और असत्य का यथावद्विवेचन करनेवाला सबको मान करने योग्य होता है ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ प्रकृतविषये राजशिष्यकृत्यमाह।

अन्वय:

हे देवाग्ने यस्त्वं धृतव्रतो वरुणइव राजा भवसि दस्म ईड्यो मित्रो भवसि यस्य राजस्य संभुजन्त्वमर्य्यमा सत्पतिर्भवस्यंशस्त्वं विदथे भाजयुर्भवसि तस्मादस्माकं राजाऽसि ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (अग्ने) सूर्यवत्ससर्वार्थप्रकाशक (राजा) शरीरात्ममनोभिस्तेजस्वी (वरुणः) वरः श्रेष्ठः (धृतव्रतः) स्वीकृतसत्यः (त्वम्) (मित्रः) प्राणवत् सुहृत् (भवसि) (दस्मः) दुःखानां दुष्टानामुपक्षेता (ईड्यः) स्तोतुमर्हः (त्वम्) (अर्य्यमा) न्यायकारी (सत्पतिः) सतां पुरुषाणामाचाराणां च पालकः (यस्य) (सम्भुजम्) संभोक्तुम् (त्वम्) (अंशः) प्रेरकः (विदथे) संग्रामे (देव) कमनीयतम (भाजयुः) अर्थिप्रत्यर्थिनां न्यायव्यवस्थया विभाजयिता ॥४॥
भावार्थभाषाः - येन सत्यं धृत्वाऽसत्यं त्यज्यते मित्रवत्सर्वस्मै सुखं दीयते स सत्यसन्धिर्दुष्टाचारात् पृथग्भूतः सत्याऽसत्ययोर्यथावद्विवेचनकारकः सर्वेषां मान्यः स्यात् ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो सत्य धारण करून असत्याचा त्याग करतो व मित्राप्रमाणे सर्वांना सुख देतो, तो सत्यवादी असून दुष्टाचरणापासून पृथक असतो. सत्य व असत्याचे यथायोग्य विवेचन करणारा असतो. त्याची सर्वत्र मान्यता असते. ॥ ४ ॥