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ये स्तो॒तृभ्यो॒ गोअ॑ग्रा॒मश्व॑पेशस॒मग्ने॑ रा॒तिमु॑पसृ॒जन्ति॑ सू॒रयः॑। अ॒स्माञ्च॒ तांश्च॒ प्र हि नेषि॒ वस्य॒ आ बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ye stotṛbhyo goagrām aśvapeśasam agne rātim upasṛjanti sūrayaḥ | asmāñ ca tām̐ś ca pra hi neṣi vasya ā bṛhad vadema vidathe suvīrāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ये। स्तो॒तृऽभ्यः॑। गोऽअ॑ग्राम्। अश्व॑ऽपेशसम्। अग्ने॑। रा॒तिम्। उ॒प॒ऽसृ॒जन्ति॑। सू॒रयः॑। अ॒स्मान्। च॒। तान्। च॒। प्र। हि। नेषि॑। वस्यः॑। आ। बृ॒हत्। व॒दे॒म॒। वि॒दथे॑। सु॒ऽवीराः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:1» मन्त्र:16 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:19» मन्त्र:6 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वान् ! आप (ये) जो (सूरयः) विद्या ज्ञान चाहते हुए जन (स्तोतृभ्यः) समस्त विद्या के अध्यापक विद्वानों के लिए (गोअग्राम्) जिसमें इन्द्रिय अग्रगन्ता हों (अश्वपेशसम्) उस शीघ्रगामी प्राणी के समान रूपवाली (रातिम्) विद्यादान क्रिया को (उपसृजन्ति) देते हैं। (तान् च) उनको और (अस्माञ्च) हम लोगों को भी (वस्यः) अत्युत्तम निवासस्थान (आप्रनेषिहि) अच्छे प्रकार उत्तमता से प्राप्त करते हो इसी से (सुवीराः) उत्तम शूरतादि गुणों से युक्त हम लोग (विदथे) विवाद संग्राम में (बृहत्) बहुत (वदेम) कहें ॥१६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् सर्वोत्तम विद्यादान देके हमको तथा औरों को विद्वान् करते हैं, वैसे हमको भी चाहिये कि उनको सदा प्रसन्न करें ॥१६॥ इस सूक्त में अग्नि के दृष्टान्त से विद्वान् और विद्यार्थियों के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्तार्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥ यह दूसरे मण्डल में प्रथम सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने त्वं ये सूरयः स्तोतृभ्यो गोअग्रामश्वपेशसं रातिमुपसृजन्ति ताँश्चास्मांश्च वस्य आप्रणेषि हि सुवीरा वयं विदथे बृहद्वदेम ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) धार्मिका विद्यार्थिनः (स्तोतृभ्यः) सकलविद्याध्यापकेभ्यो विद्वद्भयः (गोअग्राम्) गावइन्द्रियाण्यग्रसराणि यस्यां ताम् (अश्वपेशसम्) शीघ्रगन्तृ पेशो रूपमिव रूपं यस्यां ताम् (अग्ने) विद्वन् (रातिम्) विद्यादानक्रियाम् (उपसृजन्ति) ददते (सूरयः) विद्याजिज्ञासवो मनुष्याः (अस्मान्) (च) (तान्) (च) (प्र) (हि) खलु (नेषि) नयसि (वस्यः) अत्युत्तमं वासःस्थानम् (आ) (बृहत्) महत् (वदेम) (विदथे) विद्यासंग्रामे (सुवीराः) उत्तमैः शौर्यादिगुणैरुपेताः॥१६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथा विद्वांसः सर्वोत्तमं विद्यादानं दत्वाऽस्मानन्याँश्च विदुषः कुर्वन्ति तथाऽस्माभिरपि ते सदा प्रसादनीयाः ॥१६॥। अत्राग्निदृष्टान्तेन विद्वद्विद्यार्थिकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति द्वितीयमण्डले प्रथमं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे विद्वान सर्वोत्तम विद्यादान करून आम्हाला व इतरांना विद्वान करतात तसे आम्हीही त्यांना सदैव प्रसन्न ठेवावे. ॥ १६ ॥