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ओष॑धी॒रिति॑ मातर॒स्तद्वो॑ देवी॒रुप॑ ब्रुवे । स॒नेय॒मश्वं॒ गां वास॑ आ॒त्मानं॒ तव॑ पूरुष ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

oṣadhīr iti mātaras tad vo devīr upa bruve | saneyam aśvaṁ gāṁ vāsa ātmānaṁ tava pūruṣa ||

पद पाठ

ओष॑धीः । इति॑ । मा॒त॒रः॒ । तत् । वः॒ । दे॒वीः॒ । उप॑ । ब्रु॒वे॒ । स॒नेय॑म् । अश्व॑म् । गाम् । वासः॑ । आ॒त्मान॑म् । तव॑ । पु॒रु॒ष॒ ॥ १०.९७.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:97» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:8» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ओषधीः) हे ओषधियों ! (मातरः) देह का निर्माण करनेवाली (वः) तुम्हें (देवीः-इति) दिव्य गुणवाली हो, ऐसा (उप ब्रुवे) मैं वैद्य प्रशंसित करता हूँ (पुरुष) हे भिषक् या वैद्य (अश्वम्) घोड़े को (गाम्) गौ को (वासः) घर को (आत्मानम्) अपने को (तव) तेरे लाभ के लिए तेरी सेवा के लिए (सनेयम्) तुझे समर्पित करता हूँ, मुझे स्वस्थ कर दे ॥४॥
भावार्थभाषाः - ओषधियों को तथा औषधियों से बने हुए वटी-आदि योगों को वैद्य ऐसे तैयार करें, जिससे उनमें दिव्य गुण और शरीर को निर्माण करने की शक्तियाँ आजावें तथा वैद्य चिकित्सा करने में ऐसे कुशल हों, जो रोगी को स्वस्थ बना सकें, रोगी भी अपने रोग को दूर कराने में वैद्य के समर्पित बहुमूल्य-पदार्थ को दे, कुछ न होने पर उसकी सेवा के लिए अपने को अर्पित कर दे ॥४॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ओषधीः-मातरः) हे ओषधयो ! देहनिर्मात्र्यः (वः) युष्मान् (देवीः-इति-उप ब्रुवे) दिव्यः स्थ दिव्यगुणवत्यः स्थेति खल्वहं प्रशंसामि (पुरुष) हे भिषक् ! (अश्वं गां वासः-आत्मानं तव सनेयम्) अश्वं गां निवासं स्वात्मानमपि सेवार्थं तुभ्यं समर्पयामि मां चिकित्सय-स्वस्थं कुरु ॥४॥