पदार्थान्वयभाषाः - (वः) ओषधियों ! तुम्हारा (खनिता) उखाड़नेवाला-उखाड़ता हुआ (मा रिषत्) रोग से पीड़ित नहीं होता, अपितु उखाड़ते-उखाड़ते स्वस्थ हो जाता है (च) और (यस्मै) जिसके लिए (अहं खनामि) मैं खोदता हूँ-उखाड़ता हूँ, वह भी अपने रोग से पीड़ित नहीं होता, किन्तु स्वस्थ हो जाता है, तुम्हारे गुणप्रभाव से (अस्माकम्) हमारा (द्विपत्) दो पैरवाला मनुष्य (चतुष्पत्) चार पैरवाला पशु (सर्वम्) सब प्राणिमात्र (अनातुरम्) रोगरहित-स्वस्थ (अस्तु) होवे-या हो जाता है ॥२०॥
भावार्थभाषाः - ओषधियों के अन्दर परमात्मा ने ऐसा रोगनाशक गुण दिया है, उन्हें उखाड़ते-उखाड़ते ही रोग दूर हो जाता है-अथवा रोग नहीं होता और रोगों का रोग भी उनके सेवन से दूर हो जाता है, न केवल मनुष्य ही, किन्तु पशु पक्षी भी ओषधियों से नीरोग हो जाते हैं ॥२०॥