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यस्यौ॑षधीः प्र॒सर्प॒थाङ्ग॑मङ्गं॒ परु॑ष्परुः । ततो॒ यक्ष्मं॒ वि बा॑धध्व उ॒ग्रो म॑ध्यम॒शीरि॑व ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasyauṣadhīḥ prasarpathāṅgam-aṅgam paruṣ-paruḥ | tato yakṣmaṁ vi bādhadhva ugro madhyamaśīr iva ||

पद पाठ

यस्य॑ । ओ॒ष॒धीः॒ । प्र॒ऽसर्प॑थ । अङ्ग॑म्ऽअङ्गम् । परुः॑ऽपरुः । ततः॑ । यक्ष्म॑म् । वि । बा॒ध॒ध्वे॒ । उ॒ग्रः । म॒ध्य॒म॒शीःऽइ॑व ॥ १०.९७.१२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:97» मन्त्र:12 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:12


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ओषधीः) ओषधियों ! (यस्य) जिस रोगी के (अङ्गम्-अङ्गम्) प्रत्येक अङ्ग को (परुः-परुः) प्रत्येक जोड़ के प्रति (प्रसपर्थ) प्राप्त होती हो तथा (ततः) पुनः (यक्ष्मम्) रोग को (वि बाधध्वे) नष्ट करो-रोग को निकलने के लिए विशेषरूप से बाधित करो (उग्रः) तीक्ष्ण (मध्यमशीः-इव) मेघों के मध्य जलों में होनेवाली विद्युत् की भाँति, जैसे विद्युत् मेघजलों को पीड़ित कर बाहर निकाल देती है ॥१२॥
भावार्थभाषाः - ओषधियों के अन्दर बड़ी भारी शक्ति है, जैसे विद्युत् के अन्दर बड़ी भारी शक्ति होने से मेघ के जलों को बाहर निकाल देती है, ऐसे ही ओषधियाँ अङ्ग-अङ्ग में और जोड़-जोड़ में बैठे रोग को बाहर निकाल देती हैं, वैद्य जन इस रीति और अनुपात से चिकित्सा करें ॥१२॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ओषधीः) हे ओषधयः ! (यस्य) यस्य रुग्णस्य (अङ्गम्-अङ्गम् परुष्परुः-प्रसपर्थ) प्रत्यवयवं प्रतिपर्व च प्रसपर्थ प्राप्नुथ (ततः) पुनश्च (यक्ष्मं-वि बाधध्वे) रोगं नाशयथ (उग्रः-मध्यमशीः-इव) मेघमध्यजलेषु भवः विद्युदग्निरुग्रो जलानि तद्वन्निःसारयत ॥१२॥