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आ रोद॑सी॒ हर्य॑माणो महि॒त्वा नव्यं॑नव्यं हर्यसि॒ मन्म॒ नु प्रि॒यम् । प्र प॒स्त्य॑मसुर हर्य॒तं गोरा॒विष्कृ॑धि॒ हर॑ये॒ सूर्या॑य ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā rodasī haryamāṇo mahitvā navyaṁ-navyaṁ haryasi manma nu priyam | pra pastyam asura haryataṁ gor āviṣ kṛdhi haraye sūryāya ||

पद पाठ

आ । रोद॑सी॒ इति॑ । हर्य॑माणः । म॒हि॒ऽत्वा । नव्य॑म्ऽनव्यम् । ह॒र्य॒सि॒ । मन्म॑ । नु । प्रि॒यम् । प्र । प॒स्त्य॑म् । अ॒सु॒र॒ । ह॒र्य॒तम् । गोः । आ॒विः । कृ॒धि॒ । हर॑ये । सूर्या॑य ॥ १०.९६.११

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:96» मन्त्र:11 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:7» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:11


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (रोदसी) द्युलोक पृथिवीलोक को (महित्वा) अपने महत्त्व से (आहर्यमाणः) भलीभाँति स्वाधीन करता हुआ (नव्यं नव्यम्) प्रत्येक स्तुतियोग्य (प्रियम्) रोचक (मन्म) मनन को (हर्यषि) तुरन्त चाहता है (असुर) हे प्राणप्रद परमात्मन् ! तू (हर्यतम्) कमनीय (पस्त्यम्) गृह-मोक्षधाम को (हरये) जो तुझे चाहता है उपासक (सूर्याय) विद्यासूर्य-विद्वान् के लिए (गोः-आविः कृधि) गो दूध के समान प्रादुर्भूत कर-सम्पन्न कर ॥११॥
भावार्थभाषाः - द्युलोक से लेकर पृथ्वीलोकपर्यन्त संसार को अपने महत्त्व से अधीन रखनेवाला परमात्मा प्रत्येक प्रशंसनीय व रोचक विचार को या स्तुति को चाहता है-जिसके प्रतिकार में जो विद्वान् उपासक के लिए गो के दूध की भाँति मोक्ष को आविष्कृत करता है-सम्पादित करता है, देता है ॥११॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (आहर्यमाणः) समन्तात्स्वाधीनीकुर्वाणः (महित्वा) महत्त्वेन (नव्यं नव्यं प्रियं-मन्म हर्यसि) स्तुत्यं स्तुत्यं मननं प्रियं क्षिप्रं कामयसे (असुर) हे प्राणप्रद परमात्मन् ! (हर्यतं पस्त्यं हरये सूर्याय) कमनीयं गृहं मोक्षं त्वां यो ग्रहीता तस्मै-उपासकमनुष्याय विद्यासूर्याय (गोः-आविः कृधि) गोर्दुग्धमिव प्रादुर्भावय, “अत्र लुप्तोपमानोपमावाचकालङ्कारः” ॥११॥