पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (आसु-अमृतासु) इन अमृत सुख देनेवाली स्त्रियों या प्रजाओं में (निस्पृक्-मर्तः) नियम से स्पृहा करता हुआ-इच्छा करता हुआ पत्नी का पति या प्रजा का स्वामी राजा (क्षोणीभिः) विविध मधुर शब्दों द्वारा या राष्ट्रभूमिभागों द्वारा (क्रतुभिः) रक्षाकर्म द्वारा (संपृङ्क्ते) सम्पर्क करता है (ताः) वे स्त्रियाँ या प्रजाएँ (आतयः-न) कपिञ्जल-तित्तिर पक्षियों के समान मधुर बोलती हुईं उस पति या राजा के लिए (स्वाः) अपने (तन्वः) शरीरों को (शुम्भत) शोभित करती हैं अथवा आत्मभावों को समर्पित करती हैं (दन्दशानाः) हँसते हुए (क्रीडयः) खेलते हुए (अश्वासः-न) घोड़ों के समान अपने को शोभित करती हैं ॥९॥
भावार्थभाषाः - स्त्रियाँ या प्रजाएँ अमृत सुख देनेवाली होती हैं, पति या राजा नियमित रक्षा करता हुआ मधुर शब्दों या भूभागों से श्रेष्ठ रक्षा कर्म द्वारा उनसे सम्पर्क करता है, तो वे भी मधुरभाषी पक्षी के समान मधुर बोलती हुईं अपने शरीरों को सुशोभित करती हैं या आत्मभाव को प्रकट करती हैं और सुन्दर हिनहिनाते घोड़े के समान हँसती और खेलती हैं, ऐसी स्त्रियों और प्रजाओं की रक्षा करनी चाहिये ॥९॥