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अ॒न्त॒रि॒क्ष॒प्रां रज॑सो वि॒मानी॒मुप॑ शिक्षाम्यु॒र्वशीं॒ वसि॑ष्ठः । उप॑ त्वा रा॒तिः सु॑कृ॒तस्य॒ तिष्ठा॒न्नि व॑र्तस्व॒ हृद॑यं तप्यते मे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

antarikṣaprāṁ rajaso vimānīm upa śikṣāmy urvaśīṁ vasiṣṭhaḥ | upa tvā rātiḥ sukṛtasya tiṣṭhān ni vartasva hṛdayaṁ tapyate me ||

पद पाठ

अ॒न्त॒रि॒क्ष॒ऽप्राम् । रज॑सः । वि॒ऽमानी॑म् । उप॑ । शि॒क्षा॒मि॒ । उ॒र्वशी॑म् । वसि॑ष्ठः । उप॑ । त्वा॒ । रा॒तिः । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । तिष्ठा॑त् । नि । व॒र्त॒स्व॒ । हृद॑यम् । त॒प्य॒ते॒ । मे॒ ॥ १०.९५.१७

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:95» मन्त्र:17 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:4» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:17


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अन्तरिक्षप्राम्) मेरे आत्मा को पूर्ण करनेवाली-तृप्त करनेवाली (रजसः विमानीम्) रञ्जनात्मक गृहस्थसुख का निर्माण करनेवाली (उर्वशीम्) बहुत कमनीय भार्या को (वसिष्ठः) तेरे अन्दर अत्यन्त बसनेवाला मैं पति (उप शिक्षामि) अपना वीर्यं समर्पित करता हूँ (सुकृतस्य) शुभकर्म-संयम-यथावत्-आचरित ब्रह्मचर्य की (रातिः) फलरूप दानक्रिया (त्वा) तेरे अन्दर (उप तिष्ठात्) उपस्थित रहे-सन्तान बनावे (नि वर्तस्व) निवृत्त हो (मे) मेरा (हृदयम्) हृदय (तप्यते) पीड़ित होता है तेरे पास रहने से, अतः जा ॥१७॥
भावार्थभाषाः - पत्नी पति की आत्मा को तृप्त करती है, रञ्जनीय गृहस्थसुख निर्माण करती है, कमनीय है, अतः पति उसके अन्दर अत्यन्त राग से बसा रहता है, वह संयम से यथावत् पालित ब्रह्मचर्य के फलरूप वीर्य को पत्नी को समर्पित करता है, जो उसके अन्दर उपस्थित हो गर्भ-पुत्ररूप में पुष्ट होता है। गर्भस्थित हो जाने पर पत्नी को पतिगृह से पिता भ्राता आदि के यहाँ चला जाना चाहिए, जिससे कि गर्भ की रक्षा पुत्रोत्पत्ति के योग्य हो जावे। पति के पास न रहे, पास रहने से पति कामभाव से पीड़ित होता है, उसके द्वारा गर्भपात करने की सम्भावना है ॥१७॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अन्तरिक्षप्राम्) आत्मनः पूरयित्रीम् “आत्मान्तरिक्षम्” [काठ० १६।२] (रजसः विमानीम्) रञ्जनात्मकस्य गृहस्थसुखस्य निर्मात्रीं (उर्वशीम्) बहुकमनीयां भार्यां (वसिष्ठः) त्वयि खल्वतिशयेन वसिताऽहं पतिः (उप शिक्षामि) उपददामि स्ववीर्यम् “शिक्षति दानकर्मा” (निघं० ३।२०) (सुकृतस्य रातिः) शुभकर्मणः संयमस्य यथावदाचरितस्य ब्रह्मचर्यस्य फलभूता दानक्रिया (त्वा-उप तिष्ठात्) त्वयि ‘सप्तम्यर्थे द्वितीया छान्दसी व्यत्ययेन’ उपतिष्ठेत् (नि वर्तस्व) मत्तो निवृत्ता भव (मे हृदयं तप्यते) मम हृदयं तप्यते पार्श्वे त्वत्स्थित्या, तस्मान्निवृत्ता भव ॥१७॥