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यद्विरू॒पाच॑रं॒ मर्त्ये॒ष्वव॑सं॒ रात्री॑: श॒रद॒श्चत॑स्रः । घृ॒तस्य॑ स्तो॒कं स॒कृदह्न॑ आश्नां॒ तादे॒वेदं ता॑तृपा॒णा च॑रामि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad virūpācaram martyeṣv avasaṁ rātrīḥ śaradaś catasraḥ | ghṛtasya stokaṁ sakṛd ahna āśnāṁ tād evedaṁ tātṛpāṇā carāmi ||

पद पाठ

यत् । विऽरू॒पा । अच॑रम् । मर्त्ये॑षु । अव॑सम् । रात्रीः॑ । श॒रदः॑ । चत॑स्रः । घृ॒तस्य॑ । स्तो॒कम् । स॒कृत् । अह्नः॑ । आ॒श्ना॒म् । तात् । ए॒व । इ॒दम् । त॒तृ॒पा॒णा । च॒रा॒मि॒ ॥ १०.९५.१६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:95» मन्त्र:16 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:16


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जिससे कि (विरूपा) पूर्व से विमुख अर्थात् पूर्व ब्रह्मचारिणी से विरूप गृहिणीभाव को प्राप्त को (अचरम्) सेवन करती हूँ (मर्त्येषु) पुरुषों में-पुरुषों के सम्पर्क में एक की पत्नी होकर (अवसम्) वसती हूँ-वसूँ (शरदः) शीतकालीन (चतस्रः-रात्रीः) चार रात्रियाँ, जिनमें तीन रजस्वलावाली फिर एक गर्भाधानवाली को वस रही हूँ-वसूँ (अह्नः) दिन के (सकृत्) एक बार ही (घृतस्य) मानव बीज-वीर्य के (स्तोकम्) अल्प भाग को (आश्नाम्) भोगती हूँ-भोगूँ (तात्-एव) उतने मात्र से ही (इदं तातृपाणा) इस समय तृप्त हुई (चरामि) विचरती हूँ-विचरूँ ॥१६॥
भावार्थभाषाः - कुमारी ब्रह्मचारिणीरूप को छोड़कर गृहिणी के रूप में आती हैं या आया करती हैं, पुरुषों के सम्पर्क में किसी एक की पत्नी बनकर रहती हैं-रहना होता है, पतिसङ्ग केवल शीतकाल चार रात्रियों का होता है, तीन रजोधर्म की पति के सङ्ग रहने की और चौथी गर्भाधान की, केवल एक बार मानव बीज-वीर्य का अल्प भाग सन्तानार्थ लेकर सन्तान की उत्पत्ति तक तृप्त रहना चाहिये-संयम से रहना चाहिये ॥१६॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्-विरूपा-अचरम्) यतोऽहं पूर्वतो-ब्रह्मचारिणी खल्वासं तद्विरुद्धा गृहिणी त्वं चरितवती चरामि (मर्त्येषु-अवसम्) पुरुषेषु पुरुषाणां सम्पर्के-एकस्य भार्या भूत्वा वसामि (शरदः-चतस्रः-रात्रीः) शीतकालिकाः खलु चतस्रो रात्रीः-तिष्ठन्तु-रजस्वलास्थाभूताः पुनरेका गर्भाधानविषयिकाः वासं कृतवती वसामि (अह्नः सकृत्) दिनस्यैकवारमेव (घृतस्य स्तोकम्-आश्नाम्) रेतसो मानव-बीजस्य-वीर्यस्य “रेतो वै घृतम्” [श० ९।३।३।४४] अल्पं भागं भुक्तवती भुञ्जे (तात्-एव-इदं तातृपाणा चरामि) तेनैवेदानीं तृप्यमाणा चरामि ॥१६॥