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शं नो॑ दे॒वीर॒भिष्ट॑य॒ आपो॑ भवन्तु पी॒तये॑ । शं योर॒भि स्र॑वन्तु नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śaṁ no devīr abhiṣṭaya āpo bhavantu pītaye | śaṁ yor abhi sravantu naḥ ||

पद पाठ

शम् । नः॒ । दे॒वीः । अ॒भिष्ट॑ये । आपः॑ । भ॒व॒न्तु॒ । पी॒तये॑ । शम् । योः । अ॒भि । स्र॒व॒न्तु॒ । नः॒ ॥ १०.९.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:9» मन्त्र:4 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:5» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (देवीः-आपः) दिव्यगुणवाले दृश्यमान स्नानयोग्य तथा पानयोग्य शरीर के अन्दर व्यापने योग्य जल (नः) हमारी (अभिष्टये) स्नानक्रिया के लिए और (पीतये) पानक्रिया के लिए (शं भवन्तु) कल्याणकारी होवें। वे जल (शंयोः-अभिस्रवन्तु) वर्तमान रोगों का शमन और भावी रोगों के भयों का पृथक्करण करें-उन्हें बाहर भीतर दोनों ओर से रिसावें-बहावें ॥४॥
भावार्थभाषाः - जल का स्नान और पान करने से शरीर में वर्तमान रोगों का शमन और भावी रोगभयों का पृथक्करण हो जाता है तथा दोनों ही प्रकार स्नान और पान सुख-शान्ति को प्राप्त कराते हैं। इसी प्रकार आपजनों के सङ्ग से बाहरी पापसंस्पर्श का अभाव और भीतरी पापताप की उपशान्ति होती है। अध्यात्म से आपः-व्यापक परमात्मा के जगत् में प्रत्यक्षीकरण और अन्तरात्मा में साक्षात् अनुभव से सच्चा सुख और शान्ति की प्राप्ति होती है-अमृत की वर्षा होती है ॥४॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (देवीः-आपः) दिव्यगुणवत्यो दृश्यमानाः-स्नानार्हाः पानार्हा आपः (नः) अस्माकं (अभिष्टये) स्नानक्रियायै ‘अभिपूर्वात् ष्टै वेष्टने [भ्वादिः] ततः किः प्रत्ययः’। (पीतये) पानक्रियायै (शं भवन्तु) कल्याणरूपाः कल्याणकारिण्यो भवन्तु, ताः आपः (शंयोः) रोगाणां शमनं भयानां यावनं पृथक्करणं “शमनं च रोगाणां यावनं च भयानाम्” [निरु० ४।२१] (अभिस्रवन्तु) अभितः-उभयतः स्रावयन्तु वाहयन्तु ॥४॥