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यत्रा॒ वदे॑ते॒ अव॑र॒: पर॑श्च यज्ञ॒न्यो॑: कत॒रो नौ॒ वि वे॑द । आ शे॑कु॒रित्स॑ध॒मादं॒ सखा॑यो॒ नक्ष॑न्त य॒ज्ञं क इ॒दं वि वो॑चत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yatrā vadete avaraḥ paraś ca yajñanyoḥ kataro nau vi veda | ā śekur it sadhamādaṁ sakhāyo nakṣanta yajñaṁ ka idaṁ vi vocat ||

पद पाठ

यत्र॑ । वदे॑ते॒ इति॑ । अव॑रः । परः॑ । च॒ । य॒ज्ञ॒ऽन्योः॑ । क॒त॒रः । नौ॒ । वि । वे॒द॒ । आ । शे॒कुः॒ । इत् । स॒ध॒ऽमाद॑म् । सखा॑यः । नक्ष॑न्त । य॒ज्ञम् । कः । इ॒दम् । वि । वो॒च॒त् ॥ १०.८८.१७

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:88» मन्त्र:17 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:7» मन्त्र:17


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञन्योः) यज्ञ के नायकों में एक होमयज्ञ का नायक तथा दूसरा अध्यात्मयज्ञ का नायक, इन दोनों में (यत्र) जिस प्रसङ्ग में (वदेते) विवाद करते हैं (अपरः-च परः-च) होमयाजी और आत्मयाजी (नौ) हम दोनों में (कतरः-विवेद) कौनसा विशेषरूप से जानता है, प्राप्त करता है (आशेकुः-इत्) भलीभाँति इस रहस्य को जान सकते हैं (सखायः) समान धर्मापन्न विद्वान् जन (सधमादं नक्षन्त) ये किसके साथ हर्ष को प्राप्त करते हैं (कः) कोई विशेषरूप से यज्ञ को जानता है, यज्ञ में तो पार्थिव अग्नि ही अभीष्ट है, नहीं तो मध्य स्थानवाला वायु तो हव्य को ऊपर ले जाता ही है ॥१७॥
भावार्थभाषाः - होमयाजी और आत्मयाजी दोनों के मार्ग पृथक् हैं, जो होमयज्ञ और आत्मयज्ञ को करके लाभ उठाते हैं तथा होमयज्ञ के हव्य को पृथिवी का अग्नि सूक्ष्म करता है। मध्यमस्थान का वायु होमे हुए सूक्ष्म को फैलाता है ॥१७॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञन्योः) यज्ञस्य नेत्रोः-नायकयोः-एकस्तु होमयज्ञस्य नायकोऽपरोऽध्यात्मयज्ञस्य नायकस्तद् द्वयोः (यत्र) यस्मिन् प्रसङ्गे (वदेते) विवदेते विवादं कुरुतः (अवरः-च परः-च) होमयाजी तथाध्यात्मयाजी च (नौ) आवयोः (कतरः-विवेद) विशिष्टतया को यज्ञं वेत्ति-इति (आशेकुः-इत्) समन्तात् खलु शक्नुवन्ति तद्रहस्यं (सखायः) समानख्यानास्तद्धर्मापन्ना विद्वांसः (सधमादं नक्षन्त) ये केन सह मादनं प्राप्नुवन्ति (कः) कश्चन यज्ञं यजनीयं विशिष्टतया वेत्ति जानाति, इत्याध्यात्मिकोऽर्थः, यज्ञकरणे तु खल्ववरः पार्थिवोऽग्निरेवाभीष्टः, न परो मध्यस्थानो वायुस्तु हव्यं नयत्येव ॥१७॥