पदार्थान्वयभाषाः - इन्द्राणी का प्रत्युत्तर (इन्द्र त्वम्) हे इन्द्र-उत्तरध्रुव ! तू (यम्-इमं प्रियं वृषाकपिम्) जिस इस अपने सूर्य की (अभिरक्षसि) अभिरक्षा करता है-तरफदारी करता है (कपिः मे प्रिया व्यक्ता) वृषाकपि-सूर्य ने मेरी प्रिया प्रकाशित सब ताराओं को दूषित कर दिया, केवल अपनी योगतारा पर ही स्थिर नहीं रहा, अतः (वराहयुः श्वा) वराह-शूकर को चाहनेवाला कुत्ता-वृक भेड़िया चन्द्रमा (अस्य कर्णे नु) इसके दोनों कान कोण भी अवश्य (जम्भिषत्) ग्रस लेता है (अस्य शिरः-नु राविषम्) इनके शिर को मैं अवश्य काट डालूँ (दुष्कृते न सुगं भुवम्) दुष्कर्मी के लिये मैं कभी सुखदा न होऊँ ॥४-५॥
भावार्थभाषाः - ज्योतिर्विद्या के क्षेत्र में सूर्य अपनी एक योगतारा रेवती पर स्थिर न रहकर अन्य ताराओं का स्पर्श करता जाता है। व्योमकक्षा की समस्त ताराओं को स्पर्श किया, पुनः क्रमशः ऐसी स्थिति में आता है कि चन्द्रमा इसके कोण को ग्रस लेता है, तो सूर्यग्रहण पड़ जाता है। यह वर्णन आलङ्कारिक ढंग से कहा गया है ॥४-५॥