पदार्थान्वयभाषाः - (पित्रोः-मूर्धानम्-आ-अरब्ध) यह महान् अग्नि मातापिताओं-द्यावापृथिवीमय जगत् के मूर्धा-मूर्धन्य-प्रधानस्थान सूर्यमण्डल से सूर्यरूप में ज्वलन आरम्भ करता है, पुनः (अध्वरे सूरः-अर्णः-निदधिरे) लोगों को मार्ग देनेवाले अन्तरिक्ष में सरणशील रश्मियाँ और जलांशधाराएँ निहित गुप्तरूप में उस महान् मार्ग को धारण करती हैं, विद्युद्रूप से (अस्य पत्मन्) इस महान् अग्नि के नीचे पतनस्थान पृथिवी पर (अश्वबुध्नाः-अरुषीः) व्यापनशील वज्रमूलवाली रोचमान ज्वालाओं को (ऋतस्य योनौ) यज्ञ आदि श्रेष्ठों कर्म में (तन्वः-जुषन्त) शरीरधारी आत्मा सेवन करते हैं-कार्य में लाते हैं अग्निरूप से ॥३॥
भावार्थभाषाः - महान् अग्नि का प्रथम स्थान सूर्यमण्डल है, सूर्यरूप अग्नि का दूसरा स्थान लोकों को मार्ग देनेवाला अन्तरिक्ष है, सूर्यरश्मियों और जलकण धाराओं से सम्पन्न मेघ में विद्युद्रूप से है। तीसरा स्थान पृथिवी पर यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म में है, उसे साक्षात् ज्वाला में अग्निरूप से मनुष्यादि कार्य में लाते हैं। इस ऐसे अग्नि को जानकर विद्वान् और राजा इस जैसे बनकर विद्याप्रचार और राष्ट्रव्यवहार को समृद्ध करें ॥३॥