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अश्नापि॑नद्धं॒ मधु॒ पर्य॑पश्य॒न्मत्स्यं॒ न दी॒न उ॒दनि॑ क्षि॒यन्त॑म् । निष्टज्ज॑भार चम॒सं न वृ॒क्षाद्बृह॒स्पति॑र्विर॒वेणा॑ वि॒कृत्य॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aśnāpinaddham madhu pary apaśyan matsyaṁ na dīna udani kṣiyantam | niṣ ṭaj jabhāra camasaṁ na vṛkṣād bṛhaspatir viraveṇā vikṛtya ||

पद पाठ

अश्ना॑ । अपि॑ऽनद्धम् । मधु॑ । परि॑ । अ॒प॒श्य॒त् । मत्स्य॑म् । न । दी॒ने । उ॒दनि॑ । क्षि॒यन्त॑म् । निः । तत् । ज॒भा॒र॒ । च॒म॒सम् । न । वृ॒क्षात् । बृह॒स्पतिः॑ । वि॒ऽर॒वेण॑ । वि॒ऽकृत्य॑ ॥ १०.६८.८

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:68» मन्त्र:8 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:18» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:8


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिः) ब्रह्माण्ड का वेदज्ञान का स्वामी परमात्मा (अश्ना-अपिनद्धं मधु) भोगवाले भोगायतन-शरीर के द्वारा दृढबद्ध आत्मा को (परि-अपश्यत्) सम्यक् देखता है (मत्स्यं न दीने-उदनि क्षियन्तम् ) क्षीण जलाशय में-जल में रहते हुए मत्स्य की भाँति (तत्-निर्जभार) उस जीवात्मा को निकालता है (वृक्षात्-चमसं न) जैसे रसमय वृक्ष से चमनीय रस को (विकृत्य रवेण) काटकर निकालते हैं, ऐसे प्रवचन द्वारा निकालता है ॥८॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा शरीर में बँधे आत्मा का उद्धार करता है, जैसे थोड़े पानी में तड़पती मछली को बाहर किया जाता है। उसके लिए वेद में से उस ज्ञान को प्रकट करता है, जैसे रसीले फलवाले वृक्ष से उसके पान करने योग्य रस को निकाला जाता है ॥८॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिः) ब्रह्माण्डस्य वेदज्ञानस्य स्वामी (अश्ना-अपिनद्धं मधु परि-अपश्यत्) अशनवता “अश्ना-अशनवता” [निरु० १०।११] भोगवता भोगायतनेन शरीरेण दृढं बद्धमात्मानं परिपश्यति “आत्मा वै पुरुषस्य मधु” (तै० सं० २।३।२।९) (मत्स्यं न दीने-उदनि क्षियन्तम्) क्षीणे जलाशये-जले “दीङ् क्षये” [दिवादिः] ‘ततो नक्’ [उणा० ३।२] निवसन्तं मत्स्यमिव (तत्-निर्जभार) तं जीवात्मानं निर्हरति निस्सारयति (वृक्षात्-चमसं न रवेण विकृत्य) यथा वा वृक्षात्-रसमयात् चमनीयं रसं कर्तित्वा प्रयच्छति तद्वत् प्रवचनेन प्रयच्छति ॥८॥