पदार्थान्वयभाषाः - (साध्वर्याः) साधु अर्थात् कुशल या उदार स्वामी जिनका है, ऐसी वे (अतिथिनीः) अतिथियों को ले जातीं या प्राप्त होती हैं, वे (इषिराः) चाहने योग्य (स्पार्हाः) स्पृहणीय (अनवद्यरूपाः) अनिन्दनीय-प्रशंसनीय वेदवाणियाँ या जलधाराएँ (बृहस्पतिः) महान् ब्रह्माण्ड का स्वामी परमात्मा या महान् राष्ट्र का स्वामी राजा (स्थिविभ्यः पर्वतेभ्यः) स्थिर बहुत विद्यावाले ऋषियों से या पर्वतों से (गाः-वितूर्य) वेदवाणियों को या गतिशील जलधाराओं को उनके हृदयकपाट को खोलकर या पर्वतगह्वर को विदीर्ण करके (निर्-ऊपे) निकालता है या नीचे फेंकता है (यवम्-इव) अन्न की भाँति, जैसे किसान खेत से अन्न को प्रकट करता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा सृष्टि के आरम्भ में आदि ऋषियों के हृदय-अन्तःकरण से संसार का कल्याण साधनेवाली वेदवाणियों का प्रकाश करता है, जो वेदवाणियाँ दोषों को दूर करनेवाली और प्रशंसनीय हैं। एवं राजा प्रजा का हित चाहता हुआ पर्वतों से नदियों के मार्ग को विकसित करता हुआ, उन्हें कुल्याओं के रूप में नीचे लाता है। प्रजा के लिए राज का यह कर्तव्य है कि वह उनकी इस प्रकार की सुविधाओं का सम्पादन करे ॥३॥