वांछित मन्त्र चुनें

हि॒मेव॑ प॒र्णा मु॑षि॒ता वना॑नि॒ बृह॒स्पति॑नाकृपयद्व॒लो गाः । अ॒ना॒नु॒कृ॒त्यम॑पु॒नश्च॑कार॒ यात्सूर्या॒मासा॑ मि॒थ उ॒च्चरा॑तः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

himeva parṇā muṣitā vanāni bṛhaspatinākṛpayad valo gāḥ | anānukṛtyam apunaś cakāra yāt sūryāmāsā mitha uccarātaḥ ||

पद पाठ

हि॒माऽइ॑व । प॒र्णा । मु॒षि॒ता । वना॑नि । बृह॒स्पति॑ना । अ॒कृ॒प॒य॒त् । व॒लः । गाः । अ॒न॒नु॒ऽकृ॒त्यम् । अ॒पु॒नरिति॑ । च॒का॒र॒ । यात् । सूर्या॒मासा॑ । मि॒थः । उ॒त्ऽचरा॑तः ॥ १०.६८.१०

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:68» मन्त्र:10 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:18» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:10


बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (हिमा-इव वनानि) जैसे हेमन्त ऋतु से वन में होनेवाले (पर्णा मुषिता) पत्ते पृथक् किये जाते हैं अर्थात् अलग हो जाते हैं, (बृहस्पतिना) वेद का पालक परमात्मा वैसे (वलः) आवरक अज्ञान से आत्मा को पृथक् करने के लिए (गाः-अकृपयत्) वाणियाँ-विद्याएँ जीवात्माओं के लिए रचता है (यावत्-सूर्यामासा) जब तक सूर्यचन्द्रमा (मिथः-उच्चरातः) आकाश में दिन-रात या दोनों पक्षों में उदय होते हैं-दृष्टिगोचर होते हैं, तब तक (अननुकृत्यम्-अपुनः-चकार) उस वेदज्ञान को, जिसे पुनः-पुनः प्रकट नहीं करता, एक बार ही प्रकट करता है ॥१०॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा सूर्य और चन्द्रमा को तो दिन-रात में या दोनों पक्षों में बार-बार या पुनः-पुनः उदित करता है, परन्तु जीवात्माओं को अज्ञान से छुड़ाने के लिए वेदवाणियों या वेद के ज्ञान को एक बार ही प्रकट करता है, क्योंकि परमात्मा का ज्ञान पूर्ण है। उसे बार बार प्रकट करने की आवश्यकता नहीं ॥१०॥
बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (हिमा-इव वनानि पर्णा मुषिता) यथा हिमेन हेमन्तेन वने भवानि ‘तद्धितप्रत्ययस्य लोपश्छान्दसः’ पत्राणि वृक्षेभ्यः पृथक्कृतानि भवन्ति तथा (बृहस्पतिना) वेदस्य पालकः ‘प्रथमार्थे तृतीया’ (वलः) वलात्-आवरकादज्ञानादात्मानं पृथक्कर्त्तुम् ‘पञ्चमीस्थाने छान्दसी प्रथमा’ (गाः-अकृपयत्) वाचो विद्या जीवत्मभ्यः अकल्पयत्-अरचयत् “कृपा कृपतेर्वा कल्पतेर्वा” [निरु० ६।८] (यावत्-सूर्यामासा मिथः-उच्चरातः) यावत् सूर्याचन्द्रमसौ पूर्वपश्चिमात् उदयतः-आकाशे-अहोरात्रयोः पक्षयोः-दृष्टिगोचरौ भवतः, तावत् (अननुकृत्यम्-अपुनः-चकार) तथा तद्वेदज्ञानं पुनर्न कर्तव्यं सकृदेव प्रकटीकरोति ॥१०॥