वांछित मन्त्र चुनें

उ॒द॒प्रुतो॒ न वयो॒ रक्ष॑माणा॒ वाव॑दतो अ॒भ्रिय॑स्येव॒ घोषा॑: । गि॒रि॒भ्रजो॒ नोर्मयो॒ मद॑न्तो॒ बृह॒स्पति॑म॒भ्य१॒॑र्का अ॑नावन् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

udapruto na vayo rakṣamāṇā vāvadato abhriyasyeva ghoṣāḥ | giribhrajo normayo madanto bṛhaspatim abhy arkā anāvan ||

पद पाठ

उ॒द॒ऽप्रुतः॑ । न । वयः॑ । रक्ष॑माणाः । वाव॑दतः । अ॒भ्रिय॑स्यऽइव । घोषाः॑ । गि॒रि॒ऽभ्रजः॑ । न । ऊ॒र्मयः॑ । मद॑न्तः । बृहस्पति॑म् । अ॒भि । अ॒र्काः । अ॒ना॒व॒न् ॥ १०.६८.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:68» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:1


बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में ‘बृहस्पति’ शब्द से परमात्मा गृहीत है, सृष्टि के प्रारम्भ में वह मानवों के हितार्थ परमऋषियों में वेद का प्रकाश करता है, इस प्रकार उसकी प्रशंसा की है।

पदार्थान्वयभाषाः - (मदन्तः-अर्काः-बृहस्पतिम्-अनावन्) हर्ष करते हुए-हर्षित होते हुए स्तुतिकर्ता जन महान् ब्रह्माण्ड के स्वामी परमात्मा की स्तुति करते हैं, जैसे (उदप्रुतः-न वयः) जल के ऊपर जलपक्षी कलरव करते हैं-चहचहाते हैं अथवा, (रक्षमाणाः) खेती की रक्षा करनेवाले कृषक पशु-पक्षियों को बोलकर हलकारा करते हैं, या (वावदतः-अभ्रियस्य-इव घोषाः) शब्दायमान मेघसमूह जैसे गर्जना घोष करते हैं, अथवा (गिरिभ्रजः-ऊर्मयः) पर्वत से गिरी जलधाराएँ जैसे शब्द करती हैं, वैसे ही स्तोताजन उच्चस्वर से परमात्मा की स्तुति करते हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा की स्तुति करनेवाले जन हर्षित होकर भिन्न-भिन्न प्रकार से परमात्मा की स्तुति किया करते हैं। जल पर तैरनेवाले जलकाक जैसे हर्षध्वनि करते हैं, खेती करनेवाले हरे भरे-खेत में रक्षार्थ जैसे ध्वनियाँ करते हैं, वर्षण के लिए उद्यत मेघसमूह जैसे गर्जना करते हैं और पर्वत से गिरते हुए झरने जैसे झर्झर ध्वनि करते हैं, ऐसे ही स्तोताजन अपने मधुर वचनों से परमात्मा का विभिन्न पद्धतियों से स्तुतिगान करते हैं ॥१॥
बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

अत्र सूक्ते ‘बृहस्पति’शब्देन परमात्मा गृह्यते। स सृष्टेरादौ मानवहिताय परमर्षिषु वेदं प्रकाशयतीति तस्य शंसनं वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (मदन्तः-अर्काः-बृहस्पतिम्-अनावन्) हृष्यन्तो हर्षमनुभवन्तः-स्तोतारो बृहतो ब्रह्माण्डस्य स्वामिनं स्तुवन्ति “णु स्तुतौ” [अदादिः] यथा (उदप्रुतः-न वयः) जलोपरि जलपक्षिणः कलरवं कुर्वन्ति अथवा (रक्षमाणाः) कृषिं रक्षमाणाः कृषकाः ‘उपमेयलुप्तालङ्कारः’ यद्वा (वावदतः-अभ्रियस्य-इव घोषाः) शब्दायमानस्याभ्रसमूहस्य मेघजलस्य यथा घोषाः, अथवा (गिरिभ्रजः-ऊर्मयः) पर्वतभ्रष्टाः पर्वतात् पतिता जलधाराः शब्दायन्ते तद्वत् स्तोतारः परमात्मानमुच्चैः स्तुवन्ति ॥१॥