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अ॒वो द्वाभ्यां॑ प॒र एक॑या॒ गा गुहा॒ तिष्ठ॑न्ती॒रनृ॑तस्य॒ सेतौ॑ । बृह॒स्पति॒स्तम॑सि॒ ज्योति॑रि॒च्छन्नुदु॒स्रा आक॒र्वि हि ति॒स्र आव॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avo dvābhyām para ekayā gā guhā tiṣṭhantīr anṛtasya setau | bṛhaspatis tamasi jyotir icchann ud usrā ākar vi hi tisra āvaḥ ||

पद पाठ

अ॒वः । द्वाभ्या॑म् । प॒रः । एक॑या । गाः । गुहा॑ । तिष्ठ॑न्तीः । अनृ॑तस्य । सेतौ॑ । बृह॒स्पतिः॑ । तम॑सि । ज्योतिः॑ । इ॒च्छन् । उत् उ॒स्राः । आ । अ॒कः॒ । वि । हि । ति॒श्रः । आव॒रित्यावः॑ ॥ १०.६७.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:67» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:15» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिः) वेदवाणी का पालक महाविद्वान् (द्वाभ्याम्-अवः) मनन और विज्ञान के द्वारा, अवर-सांसारिक व्यवहार के निमित्त (एकया परः) एक विज्ञानवाली बुद्धि से पर अर्थात् अध्यात्मक्षेत्र-मोक्षार्थ (गुहा तिष्ठन्तीः-गाः) सूक्ष्मता में-अध्यात्मधारा में विराजमान स्तुतियों को (अनृतस्य सेतौ) तथा नश्वर संसार के बन्धन में या पुनः-पुनः संसार की प्रवृत्ति में रहता है (तमसि ज्योतिः-इच्छन्) अन्धकार में प्रकाश को चाहता हुआ जैसा (उस्राः-उत्-अकः) रश्मियों-चेतनाओं को उत्प्रेरित करता है-उभारता है (तिस्रः-वि-आवः) तीन वाणियों-वेदत्रयी को अपने अन्दर प्रकट करता है, दूसरों के अन्दर भी ॥४॥
भावार्थभाषाः - वेदविद्या का वक्ता सांसारिक सुख व्यवहार को जहाँ सिद्ध करता है, वहाँ अध्यात्म-मोक्ष को भी सिद्ध करता है। संसार के बन्धन से तथा अज्ञान अन्धकार से अपने को पृथक् करता है एवं दूसरों को भी इनसे पृथक् होने की प्रेरणा देता है। वह ऐसा विद्वान् वेद का सच्चा प्रचारक आश्रयणीय है ॥४॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहस्पतिः) वेदवाचः पालयिता महाविद्वान् (द्वाभ्याम्-अवः) मननविज्ञानाभ्याम्, अवः-अवरव्यवहारे व्यवहारनिमित्तम् (एकया परः) एकया विज्ञानवत्तया प्रज्ञया परस्मिन् अध्यात्मक्षेत्रे मोक्षे मोक्षार्थं (गुहा तिष्ठन्तीः-गाः) सूक्ष्मतायामध्यात्मधारायां वा विराजमानाः स्तुतीः (अनृतस्य सेतौ) तथा अनृतस्य नश्वरस्य संसारस्य बन्धने पुनः पुनः संसारप्रवृत्तौ या वर्तते (तमसि ज्योतिः-इच्छन्) अन्धकारे प्रकाशमिच्छन्निव (उस्राः-उत्-अकः) रश्मीन् चेतनाः “उस्राः रश्मिनाम” [निघ० १।५] उत्प्रेरयति (तिस्रः-वि-आवः) तिस्रो वाचो विद्यास्त्रयीवेदरूपा स्वाभ्यन्तरे प्रकटयति, अन्येषु च ॥४॥