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य॒दा वाज॒मस॑नद्वि॒श्वरू॑प॒मा द्यामरु॑क्ष॒दुत्त॑राणि॒ सद्म॑ । बृह॒स्पतिं॒ वृष॑णं व॒र्धय॑न्तो॒ नाना॒ सन्तो॒ बिभ्र॑तो॒ ज्योति॑रा॒सा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yadā vājam asanad viśvarūpam ā dyām arukṣad uttarāṇi sadma | bṛhaspatiṁ vṛṣaṇaṁ vardhayanto nānā santo bibhrato jyotir āsā ||

पद पाठ

य॒दा । वाज॑म् । अस॑नत् । वि॒श्वऽरू॑पम् । आ । द्याम् । अरु॑क्षत् । उत्ऽत॑राणि । सद्म॑ । बृह॒स्पति॑म् । वृष॑णम् । व॒र्धय॑न्तः । नाना॑ । सन्तः॑ । बिभ्र॑तः । ज्योतिः॑ । आ॒सा ॥ १०.६७.१०

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:67» मन्त्र:10 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:16» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:10


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यदा विश्वरूपं वाजम्-असनत्) जब वह राष्ट्रपालक विविधरूप अन्न आदि को प्रजाजनों के लिए प्रदान करता है (द्याम्-आरुक्षत्) तब वह राज्यपालन पद को प्राप्त होता है, वहाँ (उत्तराणि सद्म) उत्कृष्ट प्राप्तव्य वस्तुओं को अपने लिए और प्रजा के लिए प्राप्त करता है (बृहस्पतिं वृषणं वर्धयन्तः) उस सुखवर्षक बृहत् राष्ट्रपति को प्रजाजन बढ़ाते हैं या बढ़ाने के लिए (नाना सन्तः-आसा ज्योतिः-बिभ्रतः) नाना प्रकार से प्रशंसा करते हुए मुख अर्थात् मस्तिष्क से ज्ञानप्रकाश को धारण करते हुए विराजते हैं ॥१०॥
भावार्थभाषाः - राजा सब प्रजाजनों के लिए अन्न की व्यवस्था भली प्रकार करता है, तो वह वास्तव में राजपद का अधिकारी कहलाता है। उसे प्रजा के लिए विविध वस्तुओं के द्वारा सुख का सम्पादन करना चाहिए। ऐसे राजा की प्रशंसा प्रजा मुख से भी करती है और मस्तिष्क में भी स्थान देती है ॥१०॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यदा विश्वरूपं वाजम् असनत्) यदा हि स बृहस्पतिः-महतो राष्ट्रस्य पालको विविधरूपमन्नादिकम् “वाजः-अन्ननाम” [निघ० २।७] प्रजाजनेभ्यः सम्भाजयति प्रयच्छति (द्याम्-आरुक्षत्) तदा स राज्यपालनप्रकाशकपदम् “द्यां राज्यपालनविनयप्रकाशम्” [ऋ० १।५२।११ दयानन्दः] आरोहति, तत्र (उत्तराणि सद्म) उत्कृष्टानि सद्मानि प्राप्तव्यानि वस्तूनि स्वार्थं प्रजार्थं प्राप्नोति “सद्मानि प्राप्तव्यानि” [ऋ० १।१३९।१० दयानन्दः] (बृहस्पतिं वृषणं वर्धयन्तः) तं सुखवर्षकं बृहद्राष्ट्रपतिं प्रजाजना वर्धयन्तो वर्धनाय (नाना सन्तः-आसा ज्योतिः-बिभ्रतः) नानाप्रकारेण प्रशंसमाना मुखेन-मस्तिष्केण ज्ञानप्रकाशं धारयन्तो विराजन्ते ॥१०॥