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इन्द्रो॒ वसु॑भि॒: परि॑ पातु नो॒ गय॑मादि॒त्यैर्नो॒ अदि॑ति॒: शर्म॑ यच्छतु । रु॒द्रो रु॒द्रेभि॑र्दे॒वो मृ॑ळयाति न॒स्त्वष्टा॑ नो॒ ग्नाभि॑: सुवि॒ताय॑ जिन्वतु ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indro vasubhiḥ pari pātu no gayam ādityair no aditiḥ śarma yacchatu | rudro rudrebhir devo mṛḻayāti nas tvaṣṭā no gnābhiḥ suvitāya jinvatu ||

पद पाठ

इन्द्रः॑ । वसु॑ऽभिः । परि॑ । पा॒तु॒ । नः॒ । गय॑म् । आ॒दि॒त्यैः । नः॒ । अदि॑तिः । शर्म॑ । य॒च्छ॒तु॒ । रु॒द्रः । रु॒द्रेभिः॑ । दे॒वः । मृ॒ळ॒या॒ति॒ । नः॒ । त्वष्टा॑ । नः॒ । ग्नाभिः॑ । सु॒वि॒ताय॑ । जि॒न्व॒तु॒ ॥ १०.६६.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:66» मन्त्र:3 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:12» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः-वसुभिः) ऐश्वर्यवान् राजा धनों के द्वारा अथवा वायु प्राणवायु के द्वारा (नः गयं परिपातु) हमारे घर को परिपूर्ण करे अथवा प्राण की रक्षा करे (अदितिः-आदित्यैः-नः-शर्म यच्छतु) अखण्डित ब्रह्मचर्यवान् अपने ज्ञानप्रकाशों से सुख प्रदान करे अथवा सूर्य रश्मियों द्वारा सुख को प्रदान करे (रुद्रः-देवः-रुद्रेभिः-नः-मृळयाति) उपदेशक विद्वान् अपने उपदेशवचनों से हमें सुखी करे अथवा अग्नि अपनी ज्वालाओं से हमें सुखी करे (त्वष्टा ग्नाभिः) संसार का रचयिता परमात्मा वेदवाणियों द्वारा (नः सुविताय जिन्वतु) हमें सुस्थिति के लिए तृप्त करे ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा वेदवाणियों के द्वारा हमारी आत्मस्थिति को ठीक करता है और उपदेशक विद्वान् अपने उपदेशों से हमें अच्छे मार्ग पर लाता है तथा राजा हमारे घरों को धनधान्य से पूर्ण करता है। एवं-वायु हमारे प्राणों का संचालन करता है, सूर्य रश्मियों द्वारा हमें सुखी करता है और अग्नि ज्वालाओं द्वारा हमारे कार्यों को सिद्ध करता है ॥३॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः-वसुभिः-नः-गयं परिपातु) ऐश्वर्यवान् राजा धनैरस्माकं गृहं परिपालयतु परिपूर्णं करोतु “गयः गृहनाम” [निघ० ३।४] यद्वा वायुर्वा ‘य इन्द्रः स वायुः’ [श० ४।१।३।१९] प्राणवायुभिः “प्राणा वै वसवः” [जै० ४।१।३।३] अस्माकं प्राणम् “प्राणा वै गयाः” [श० १४।८।१५।७] परिरक्षतु (अदितिः-आदित्यैः-नः-शर्म यच्छतु) अखण्डितब्रह्मचर्यवान् स्वज्ञान-प्रकाशैः सुखं प्रयच्छतु यद्वा द्यौरादित्योऽदितिभिः सूर्यरश्मिभिः सुखं प्रयच्छतु (रुद्रः-देवः-रुद्रेभिः-नः-मृळयाति) उपदेशको देवः स्ववचनैरुपदेशैरस्मान् सुखयतु यद्वा-अग्निः स्वज्वालाभिरस्मान् सुखयतु (त्वष्टा ग्नाभिः-नः सुविताय जिन्वतु) संसारस्य रचयिता परमात्मा वेदवाग्भिः “ग्ना वाङ्नाम” [निघ० १।११] सुस्थितयेऽस्मान् प्रीणयतु ॥३॥