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सर॑स्वती स॒रयु॒: सिन्धु॑रू॒र्मिभि॑र्म॒हो म॒हीरव॒सा य॑न्तु॒ वक्ष॑णीः । दे॒वीरापो॑ मा॒तर॑: सूदयि॒त्न्वो॑ घृ॒तव॒त्पयो॒ मधु॑मन्नो अर्चत ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sarasvatī sarayuḥ sindhur ūrmibhir maho mahīr avasā yantu vakṣaṇīḥ | devīr āpo mātaraḥ sūdayitnvo ghṛtavat payo madhuman no arcata ||

पद पाठ

सर॑स्वती । स॒रयुः॑ । सिन्धुः॑ । ऊ॒र्मिऽभिः॑ । म॒हः । म॒हीः । अव॑सा । य॒न्तु॒ । वक्ष॑णीः । दे॒वीः । आपः॑ । मा॒तरः॑ । सू॒द॒यि॒त्न्वः॑ । घृ॒तऽव॑त् । पयः॑ । मधु॑ऽमत् । नः॒ । अ॒र्च॒त॒ ॥ १०.६४.९

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:64» मन्त्र:9 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:7» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:9


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सरस्वती) सुन्दर जलवाली मेघधारा (सरयुः) नीचे सरणशीला वर्षाधारा (सिन्धुः) पृथिवी में स्पन्दनशील-बहती हुई नदी (ऊर्मिभिः) अपनी-अपनी तरङ्गों से (महीः) सारी बड़ी (वक्षणीः) बहनेवाली (अवसा यन्तु) रक्षण के हेतु प्राप्त होवें (देवीः-आपः-मातरः) वे सब दिव्य जल अन्नादि निर्माण करनेवाली जलधाराओं ! (घृतवत्-मधुमत् पयः) तेजयुक्त तथा मधुर स्वादवाले जल को (सूदयित्न्वः-अर्चत) रिसाती हुई हमें तृप्त करो ॥९॥
भावार्थभाषाः - आकाश में मेघधाराएँ अन्तरिक्ष में वर्षा और पृथिवी पर बहती हुई नदियाँ हमारी रक्षा के निमित्त हैं। पृथिवी पर वर्तमान सारे जल अन्न को निर्माण करनेवाली तेजस्वी एवं मधुर होते हुए हमें तृप्त करते हैं। इनका हम उपयोग करें और इनके रचयिता परमात्मा का धन्यवाद करें ॥९॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सरस्वती) सुन्दरजलवती मेघधारा (सरयुः) नीचैः सरणशीला वृष्टिधारा (सिन्धुः) पृथिव्यां स्पन्दमाना नदी (ऊर्मिभिः) तरङ्गैः (महीः) सर्वा महत्यः (वक्षणीः) वहनशीलाः (अवसा यन्तु) रक्षणहेतुना प्राप्नुवन्तु (देवीः-आपः-मातरः) ता दिव्याः सर्वाः-अन्नादिनिर्मात्र्यः (घृतवत् मधुमत्पयः-सूदयित्न्वः-अर्चत) तेजोवत्-तेजस्वि मधुरं जलं क्षरन्त्यः तृप्यन्तु ॥९॥