पदार्थान्वयभाषाः - (अदिते) हे अनश्वर परमात्मन् ! (दक्षस्य) संसार के भोगपदार्थ जिसके लिए समृद्ध-सम्पन्न किये जाते हैं, उस आत्मा के (जन्मनि व्रते) जन्मरूप कर्म में-जन्म होने पर (राजाना मित्रावरुणा) शरीर में वर्तमान प्राण और अपानों को (विवाससि) विशिष्टतया प्रकट करता है-अपनाता है (अतूर्तपन्थाः) जो आत्मा तुरन्त शरीर में चेतना मार्ग फैलानेवाला है (पुरुरथः) बहुत रमण साधन मनवाला (अर्यमा) शरीर का स्वामी (सप्तहोता) सर्पणशील प्राणोंवाला (विषुरूपेषु जन्मसु) भिन्न-भिन्न रूपोंवाले जन्मों में-योनियों में प्रवर्तमान होता है, यह आध्यात्मिक अर्थ है ॥५॥ आधिदैविक दृष्टि से–(अदिते) हे प्रातः प्रकट होनेवाली उषा देवता ! (दक्षस्य जन्मनि) अपने जन्म-उदय के अवसर पर या सूर्य के जन्म-उदय के अवसर पर (व्रते) कर्म में (राजाना मित्रावरुणा) राजमान-प्रकट हुए दोनों दिन-रातों को (विवाससि) साथ सेवन करती है (अतूर्तपन्थाः) एकरस मार्गवाला अविचलित (पुरुरथः) बहुत रमणस्थान वाला-प्रायः सर्वत्र आकाश में रमण करनेवाला (सप्तहोता) सात रङ्ग की किरणोंवाला (अर्यमा) सूर्य (विषुरूपेषु जन्मसु) विषमरूप उदयप्रसङ्गों में वर्तमान रहता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा के नियमानुसार कर्मफल भोगने के लिए सृष्टि के भोग्य पदार्थ चेतन तत्त्व जीवात्मा के लिए हैं, उनके भोगार्थ वह देहधारण करता है। देह में प्रथम श्वास-प्रश्वास का प्रचालन करता है, जिससे उसकी प्रतीति होती है। वह भिन्न-भिन्न विषयों में रमण साधन मन से युक्त होता है तथा समस्त शरीर में अपनी चेतना का प्रसार प्राणों द्वारा करता है। वह शरीर का स्वामी भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म पाता है। आकाश में जब उषा-पीतिमा रात्रि के पश्चात् प्रकट होती है और सूर्य उदय होने को होता है, तो दिनरात युगलरूप में उनसे सङ्गत हुए प्रतीत होते हैं। सूर्य अपनी सात रङ्ग की किरणों से आकाशमण्डल में प्रकाश फैलाता है और प्रतिदिन भिन्न-भिन्न स्थितियों में उदय होता रहता है ॥५॥