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क्र॒तू॒यन्ति॒ क्रत॑वो हृ॒त्सु धी॒तयो॒ वेन॑न्ति वे॒नाः प॒तय॒न्त्या दिश॑: । न म॑र्डि॒ता वि॑द्यते अ॒न्य ए॑भ्यो दे॒वेषु॑ मे॒ अधि॒ कामा॑ अयंसत ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kratūyanti kratavo hṛtsu dhītayo venanti venāḥ patayanty ā diśaḥ | na marḍitā vidyate anya ebhyo deveṣu me adhi kāmā ayaṁsata ||

पद पाठ

ऋ॒तु॒ऽयन्ति॑ । क्रत॑वः । हृ॒त्ऽसु । धी॒तयः॑ । वेन॑न्ति । वे॒नाः । प॒तय॑न्ति । आ । दिशः॑ । न । म॒र्डि॒ता । वि॒द्य॒ते॒ । अ॒न्यः । ए॒भ्यः॒ । दे॒वेषु॑ । मे॒ । अधि॑ । कामाः॑ । अ॒यं॒स॒त॒ ॥ १०.६४.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:64» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:6» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (हृत्सु) हृदयों में-मन आदि के अन्दर (क्रतवः-क्रतूयन्ति) सङ्कल्पधाराएँ सङ्कल्प-विकल्प करती हैं (धीतयः) बुद्धियाँ (वेनाः-वेनन्ति) कामनाधाराएँ विविध कामनाएँ करती हैं (दिशः-आपतयन्ति) उद्देश्यप्रवृत्तियाँ समन्तरूप से प्रवृत्त होती रहती हैं (एभ्यः-अन्यः-मर्डिता न विद्यते) इन देवों से अन्य सुखी करनेवाला कोई नहीं है (देवेषु मे कामाः-अयंसत) विद्वानों में मेरी कामनाएँ आश्रित हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों के अन्दर कुछ भावनात्मक शक्तियाँ काम करती रहती हैं। जैसे मन आदि के अन्दर सङ्कल्पधाराएँ उठती हैं। कामनाएँ जैसे प्रवृत्त होती रहती हैं, नाना प्रकार की बुद्धियाँ भी चलती हैं, अनेक उद्देश्य दिशाएँ भी उभरती रहती हैं। यद्यपि ये सब मनुष्य के सुख साधन के लिए होती हैं, फिर भी विद्वानों की सङ्गति से उनको और अधिक उत्कृष्ट बनाना चाहिए, जिससे वे अधिक सुखदायी बनें ॥२॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (हृत्सु) मनःप्रभृतिषु वर्तमानाः (क्रतवः-क्रतूयन्ति) सङ्कल्पाः सङ्कल्पयन्ति (धीतयः) प्रज्ञाः “धीतिः प्रज्ञाः” [निरु० १०।४०] (वेनाः-वेनन्ति) कामनाः कामयन्ते (दिशः-आपतयन्ति) देशनाः-उद्देशप्रवृत्तयः समन्तात् प्रवर्तन्ते (एभ्यः-अन्यः-मर्डिता न विद्यते) एभ्यो देवेभ्योऽन्यो न सुखयिता विद्यते (देवेषु मे कामाः-अयंसत) विद्वत्सु मम कामाः-आश्रिताः सन्ति ॥२॥