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अधा॒ गाव॒ उप॑मातिं क॒नाया॒ अनु॑ श्वा॒न्तस्य॒ कस्य॑ चि॒त्परे॑युः । श्रु॒धि त्वं सु॑द्रविणो न॒स्त्वं या॑ळाश्व॒घ्नस्य॑ वावृधे सू॒नृता॑भिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhā gāva upamātiṁ kanāyā anu śvāntasya kasya cit pareyuḥ | śrudhi tvaṁ sudraviṇo nas tvaṁ yāḻ āśvaghnasya vāvṛdhe sūnṛtābhiḥ ||

पद पाठ

अध॑ । गावः॑ । उप॑ऽमातिम् । क॒नायाः॑ । अनु॑ । श्वा॒न्तस्य॑ । कस्य॑ । चि॒त् । परा॑ । ई॒युः॒ । श्रु॒धि । त्वम् । सु॒ऽद्र॒वि॒णः॒ । नः॒ । त्वम् । या॒ट् । आ॒श्व॒ऽघ्नस्य॑ । व॒वृ॒धे॒ । सू॒नृता॑भिः ॥ १०.६१.२१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:61» मन्त्र:21 | अष्टक:8» अध्याय:1» वर्ग:30» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:21


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) अनन्तर (कनायाः-गावः कमनीय स्तुतिवाणियाँ (उपमातिम्-अनु) स्तुति के तुल्य-स्तुतिपात्र परमात्मा को लक्ष्य करके (कस्यचित्-श्वान्तस्य परा-ईयुः) किसी स्तुति करने से थके हुए मनुष्य की स्तुतियाँ परमात्मा को प्राप्त होती हैं, ऐसा प्रसिद्ध है (त्वं सुद्रविणः) परमात्मन् ! तू शोभन अध्यात्मधन युक्त होता हुआ (त्वं याट्) तू अध्यात्मयजन करा (अश्वघ्नस्य सूनृताभिः-वावृधे) इन्द्रियरूप घोड़ों के हन्ता अर्थात् जितेन्द्रिय की स्तुतियों द्वारा बढ़ता है-साक्षात् होता है ॥२१॥
भावार्थभाषाः - हृदय से परमात्मा की स्तुतियाँ करने से जो मनुष्य श्रान्त हो जाता है, परमात्मा उसको अपना कृपापात्र बनाता है, उसे अध्यात्मधन प्रदान करता है। उस ऐसे संयमी जन के अन्दर वह स्तुतियों से साक्षात् होता है ॥२१॥