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अधा॑सु म॒न्द्रो अ॑र॒तिर्वि॒भावाव॑ स्यति द्विवर्त॒निर्व॑ने॒षाट् । ऊ॒र्ध्वा यच्छ्रेणि॒र्न शिशु॒र्दन्म॒क्षू स्थि॒रं शे॑वृ॒धं सू॑त मा॒ता ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhāsu mandro aratir vibhāvāva syati dvivartanir vaneṣāṭ | ūrdhvā yac chreṇir na śiśur dan makṣū sthiraṁ śevṛdhaṁ sūta mātā ||

पद पाठ

अध॑ । आ॒सु॒ । म॒न्द्रः । अ॒र॒तिः । वि॒भाऽवा॑ । अव॑ । स्य॒ति॒ । द्वि॒ऽव॒र्त॒निः । व॒ने॒षाट् । ऊ॒र्ध्वा । यत् । श्रेणिः॑ । न । शिशुः॑ । दन् । म॒क्षु । स्थि॒रम् । शे॒ऽवृ॒धम् । सू॒त॒ । मा॒ता ॥ १०.६१.२०

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:61» मन्त्र:20 | अष्टक:8» अध्याय:1» वर्ग:29» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:20


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) अनन्तर (आसु-मन्द्रः-अरतिः-विभावा) इन विकृतियों-शरीरों में सोया हुआ, गतिमान् विशेषरूप से अपने आत्मा को दर्शाता है, वह चेतन (वनेषाट्-द्विवर्तनिः-अवस्यति) वननीय शरीर में होता हुआ सहता है, दो मार्गोंवाला अर्थात् इस लोक और परलोक में जानेवाला अथवा संसार और मोक्ष के प्रति गमनशील हुआ वर्तमान शरीर को छोड़ता है या संसार को छोड़ता है (यत्-ऊर्ध्वा श्रेणिः) जो ऊँची श्रेणि अर्थात् मुक्ति है, वह (शिशुः-न) प्रशंसनीय होती है (दन्) सुख देनेवाली है (मक्षु स्थिरं शेवृधं माता सूते) वह शीघ्र ही स्थिर सुख को उत्पन्न करती है, मुक्तिमाता रूप होती हुई ॥२०॥
भावार्थभाषाः - प्रकृति के विकृतिरूप सब प्राणी शरीर हैं, उनमें रहनेवाला चेतन आत्मा है, जो दो मार्गों पर गति करता है-इस जन्म और अगले जन्म संसार और मोक्ष में। अतः वह नित्य है। इसकी ऊँची स्थिति मुक्ति है, जहाँ इसे स्थायी सुख मिलता है, वह सुख की दात्री है-सुख को उत्पन्न करती है, उसका सुख अत्यन्त प्रशंसनीय है ॥२०॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) अनन्तरम् (आसु मन्द्रः-अरतिः-विभावा) आसु विकृतिषु तनूषु सुप्तः “मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु” [भ्वादिः] गतिमान् विशिष्टतया स्वात्मानं भाति द्योतयति चेतनः (वनेषाट्-द्विवर्तनिः अवस्यति) वननीये शरीरे सन् सहते तदभिभवति “षह अभिभवे” [भ्वादिः] द्विमार्गः-इहलोकं परलोकं च गमनशीलः, यद्वा संसारं मोक्षं प्रति च गमनशीलो वर्तमानं देहं त्यजति यद्वा संसारं त्यजति (यत्-ऊर्ध्वा श्रेणिः) यत्-ऊर्ध्वं श्रेणिर्मुक्तिः (शिशुः-न) शिशु शंसनीयो भवति तद्वत् प्रशंसनीया (दन्) सुखदात्री (मक्षु स्थिरं शेवृधं माता सूते) सद्यः स्थिरं सुखम् “शेवृधं सुखनाम” [निघ० ३।६] सा मुक्तिर्माता सती उत्पादयति ॥२०॥