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तद्ब॑न्धुः सू॒रिर्दि॒वि ते॑ धियं॒धा नाभा॒नेदि॑ष्ठो रपति॒ प्र वेन॑न् । सा नो॒ नाभि॑: पर॒मास्य वा॑ घा॒हं तत्प॒श्चा क॑ति॒थश्चि॑दास ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tadbandhuḥ sūrir divi te dhiyaṁdhā nābhānediṣṭho rapati pra venan | sā no nābhiḥ paramāsya vā ghāhaṁ tat paścā katithaś cid āsa ||

पद पाठ

तत्ऽब॑न्धुः । सू॒रिः । दि॒वि । ते॒ । धि॒य॒म्ऽधाः । नाभा॒नेदि॑ष्ठः । र॒प॒ति॒ । प्र । वेन॑न् । सा । नः॒ । नाभिः॑ । प॒र॒मा । अ॒स्य । वा॒ । घ॒ । अ॒हम् । तत् । प॒श्चा । क॒ति॒थः । चि॒त् । आ॒स॒ ॥ १०.६१.१८

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:61» मन्त्र:18 | अष्टक:8» अध्याय:1» वर्ग:29» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:18


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (तद्बन्धुः) वह परमात्मा जिसका बन्धु है, वह ऐसा जीवात्मा-जीवन्मुक्त (नाभा नेदिष्ठः) आत्मबलवाला परमात्मा के निकट वर्तमान (वेनन् प्ररपति) परमात्मा को चाहता हुआ प्रशंसा करता है (ते दिवि सूरिः-धियन्धाः) तेरा मोक्ष में प्रेरित करनेवाला तथा स्वस्वरूप से बुद्धि को धारण करनेवाला है (सा नः-वा घ परमा नाभिः) वह हमारी बुद्धि परमात्मा के साथ अत्यन्त सम्बन्ध करानेवाली है (तत्-पश्चा-अहम्) जिससे कि मैं पीछे (कथितः-चित् आस) किन्हीं उपासकों में उपासक हूँ ॥१८॥
भावार्थभाषाः - जिसने उपासना द्वारा परमात्मा को अपना बन्धु बना लिया, वह ऐसा जीवन्मुक्त हुआ परमात्मा के अत्यन्त निकट अर्थात् उसके अन्दर विराजमान हो जाता है। परमात्मा द्वारा प्रज्ञा-बुद्धि उसे मोक्ष में पहुँचा देती है। अन्य मुक्त्तों की भाँति वह भी मुक्त हो जाता है ॥१८॥