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प्र ता॒र्यायु॑: प्रत॒रं नवी॑य॒ स्थाता॑रेव॒ क्रतु॑मता॒ रथ॑स्य । अध॒ च्यवा॑न॒ उत्त॑वी॒त्यर्थं॑ परात॒रं सु निॠ॑तिर्जिहीताम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra tāry āyuḥ prataraṁ navīya sthātāreva kratumatā rathasya | adha cyavāna ut tavīty artham parātaraṁ su nirṛtir jihītām ||

पद पाठ

प्र । ता॒रि॒ । आयुः॑ । प्र॒ऽत॒रम् । नवी॑यः । स्थाता॑राऽइव । क्रतु॑ऽमता । रथ॑स्य । अध॑ । च्यवा॑नः । उत् । त॒वी॒ति॒ । अर्थ॑म् । प॒रा॒ऽत॒रम् । सु । निःऽऋ॑तिः । जि॒ही॒ता॒म् ॥ १०.५९.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:59» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:1» वर्ग:22» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में भिन्न-भिन्न देवतावाचक शब्दों से अनेक प्रयोजन हैं−संयम से गृहस्थचालन, अन्नसंग्रह, शीघ्र बुढ़ापा और मौत न आए, इस प्रकार आचरण करना आदि-आदि।

पदार्थान्वयभाषाः - (क्रतुमता) गृहस्थ यज्ञवाले गृहस्थ जन के द्वारा (नवीयः प्रतरम्-आयुः प्र तारि) उत्पन्न हुए बालक की अतिनवीन बढ़ने योग्य आयु बढ़ानी चाहिए (रथस्य स्थातारा-इव) जैसे रथ के अन्दर बैठनेवाले शुभ यात्रा को करते हैं, उसी भाँति गृहस्थ रथ में स्थित अपनी शुभ यात्रा करें (अध) अनन्तर (च्यवानः परातरम्-अर्थम्-उत्तवीति) जैसे कोई यात्रा करता हुआ अत्यन्त दूर के स्वलक्ष्य को भी प्राप्त करता है (निर्ऋतिः सुजिहीताम्) जीवनयात्रा के मध्य आई कृच्छ्र आपत्ति भी सुगमता से उन्हें छोड़ दे अर्थात् गृहस्थ आश्रम में आये दुःख संकट को सुगमता से सहन कर सकें, ऐसे बरतें ॥१॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थ आश्रम में रहते हुए स्त्री-पुरुष गृहस्थ को ऐसे चलाएँ, जैसे कि कोई रथस्थ यात्री अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। गृहस्थ का लक्ष्य है धर्माचरण करते हुए उत्तम सन्तान का उत्पन्न करना, उसकी आयु को बढ़ाना और उसे गुणवान् बनाना ॥१॥
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ब्रह्ममुनि

अत्र सूक्ते भिन्नभिन्नदेवतावाचकशब्देभ्योऽनेके लाभा ग्राह्याः, यथा संयमेन गृहस्थचालनं, स्थायित्वमन्नस्य, शीघ्रं जरामरणे न स्यातामिति वार्तिकम्।

पदार्थान्वयभाषाः - (क्रतुमता) गृहस्थयज्ञवता जनेन गृहस्थेन (नवीयः-प्रतरम्-आयुः प्रतारि) नवतरं जातस्य बालस्य प्रकृष्टतरं प्रवर्धनयोग्यमायुः प्रवर्धयितव्यम् (रथस्य स्थातारा-इव रथस्य स्थातारौ-यथा रथे तिष्ठन्तौशुभां यात्रां वहतस्तद्वद्गृहस्थे तिष्ठन्तौ स्त्रीपुरुषौ शुभयात्रां वहतः (अध) अथ-अनन्तरम् (च्यवानः परातरम्-अर्थम्-उत्तवीति) यथा कश्चिद् गच्छन् “च्यवानं गच्छन्तम्” [ऋ० १।११७।१३ दयानन्दः] दूरतरं स्वलक्ष्यं प्राप्नोति (निर्ऋतिः सुजिहीताम्) जीवनयात्राया मध्ये खल्वागता कृच्छ्रापत्तिः सुगमतया त्यजतु दूरं गच्छतु वा ॥१॥