पदार्थान्वयभाषाः - (अयं यः-होता किः-उ सः) यह जो ज्ञान का ग्रहण करनेवाला किस प्रकार का है, कैसा है, उत्तर में कहा जाता है (यमस्य कम्-अपि-ऊहे) मैं आत्मा कर्मफल के नियन्ता के ज्ञानविषय को वहन करता हूँ (यत्) जिससे (देवाः समञ्जन्ति) विद्वान् जिसको अपने में संयुक्त करते हैं (अहः-अहः-अथ मासि मासि जायते) जो दिन-दिन अर्थात् प्रतिदिन अथवा मास-मास-प्रतिमास प्रसिद्ध होता है, ज्ञानप्रकाश से पूर्ण होता है, जैसे-प्रतिदिन सूर्य प्रकाश से पूर्ण प्रकट होता है और चन्द्रमा प्रतिमास प्रकाश से पूर्ण होता है (देवाः-हव्यवाहं दधिरे) जब कि विद्वान् आदातव्य ज्ञान के वहनशील मुझ चेतन आत्मा को अपनी शरण में धारण करते हैं-स्वीकार करते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - आत्मा ज्ञान का ग्रहण करनेवाला चेतन पदार्थ है। कर्मानुसार फल को प्राप्त करता है। यह ज्ञान द्वारा ज्ञानप्रकाश से प्रकाशवान् होता जाता है। सूर्य और चन्द्रमा की भाँति इसका ज्ञानप्रकाश इसे प्रसिद्ध करता है, जब कि यह विद्वानों की संगति में रहकर ज्ञानग्रहण करता चला जाये ॥३॥