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विश्वे॑ देवाः शा॒स्तन॑ मा॒ यथे॒ह होता॑ वृ॒तो म॒नवै॒ यन्नि॒षद्य॑ । प्र मे॑ ब्रूत भाग॒धेयं॒ यथा॑ वो॒ येन॑ प॒था ह॒व्यमा वो॒ वहा॑नि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viśve devāḥ śāstana mā yatheha hotā vṛto manavai yan niṣadya | pra me brūta bhāgadheyaṁ yathā vo yena pathā havyam ā vo vahāni ||

पद पाठ

विश्वे॑ । दे॒वाः॒ । शा॒स्तन॑ । मा॒ । यथा॑ । इ॒ह । होता॑ । वृ॒तः । म॒नवै॑ । यत् । नि॒ऽसद्य॑ । प्र । मे॒ । ब्रू॒त॒ । भा॒ग॒ऽधेय॑म् । यथा॑ । वः॒ । येन॑ । प॒था । ह॒व्यम् । आ । वः॒ । वहा॑नि ॥ १०.५२.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:52» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:1» वर्ग:12» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में ‘विश्वेदेवा’ स्वसम्बन्धी वृद्धजन तथा विद्वान् गृहीत हैं। कठिन ब्रह्मचर्य व्रत को समाप्त कर गृहस्थ बन कल्याणार्थ उनकी सेवा करना, उनसे गृहस्थ चालन के लिए ज्ञान ग्रहण करना आदि वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वे देवाः-मा शास्तन) हे मेरे सम्बन्धी वृद्ध मान्य जनों ! मैं आपके वंश में जन्म प्राप्त करके सेवा के योग्य हो गया, अतः मुझे आदेश दो (यथा-इह होता वृतः) जिस कारण इस वंश में गृहस्थ यज्ञ के चलाने में होता-योग्य मुझे आपने बनाया (यत्-निषद्य-मनवै) तुम्हारे बीच में स्थित होकर जिससे कि गृहस्थ के अभिप्राय-उद्देश्य को जान सकूँ (यथा वः-भागधेयं मे प्रब्रूत) तुम्हारे द्वारा जो निश्चित मेरे प्रति योग्यतानुरूप ज्ञानभाग है, उसका प्रवचन करो (येन पथा वः-हव्यम्-आवहानि) जिस मार्ग-प्रकार या रीति से तुम्हारे लिए ग्राह्य वस्तु को भेंट कर सकूँ ॥१॥
भावार्थभाषाः - नवयुवक जब विवाहित हो जाएँ, तो अपने वृद्ध माता पिता आदि से गृहस्थ चलाने का उपदेश लें और उसकी भिन्न-भिन्न रीतियों पद्धतियों पर चलते हुए अपने जीवन को ढालें तथा उनके लिए उनकी यथोचित आवश्यकताओं को पूरा करें ॥१॥
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ब्रह्ममुनि

अत्र सूक्ते ‘विश्वेदेवाः’ स्वसम्बन्धिनो वृद्धजना विद्वांसश्च गृह्यन्ते। कठिनं ब्रह्मचर्यव्रतं समाप्य गृहस्थो भूत्वा तेषां कल्याणार्थं सेवां कुर्यात्, ज्ञानं च तेभ्यो गृहस्थचालनस्य ज्ञानं गृह्णीयादित्यादयो विषयाः सन्ति।

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वे देवाः-मा शास्तन) हे मम सम्बन्धिनो वृद्धा मान्या जनाः “मनुष्या वै विश्वेदेवाः” [काठ० १९।१२] अहं भवद्वंशे जन्म प्राप्य सेवायोग्यो जातः-अतो मामादिशत (यथा-इह होता वृतः) येन हेतुनाऽत्र वंशे गृहस्थयज्ञस्य चालने होतृरूपेणाऽहं युष्माभिः स्वीकृतः (यत्-निषद्य मनवै) युष्माकं मध्ये स्थित्वा यदहमभिप्रायं जानीयाम् (यथा वः-भागधेयं मे प्रब्रूत) युष्माभिः ‘विभक्तिव्यत्ययः’ यथा निश्चितं ममयोग्यतारूपं ज्ञानभागं यदस्ति मह्यं तत् प्रवदत (येन पथा वः हव्यम्-आवहानि) येन च मार्गेण प्रकारेण युष्मभ्यं ग्राह्यं द्रव्यमानयामि ॥१॥