पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) हे इन्द्रिय देवो ! तुम (प्रयाजान् च-अनुयाजान् केवलान् मे) प्रकृष्ट भोक्तव्य अन्नादि पदार्थ स्थूल भोगों को तदनुरूप पेय पदार्थों को, जो शुद्ध कल्याणकारक हैं, उनको मुझ आत्मा के लिए (हविषः-भागम्-ऊर्जस्वन्तं दत्त) ग्राह्य विषय के भाग-तेजवाले ज्ञान को दो (च) तथा (अपां वृतम्) प्राणों के तेज को (ओषधीनां पुरुषम्) ओषधियों के बहुत सेवनीय बल को (च) और (अग्नेः-दीर्घम्-आयुः-अस्तु) मुझ अग्नि-आत्मा का दीर्घ आयु मोक्षविषयक आयु हो। एवं (देवाः) हे वैज्ञानिक विद्वानों ! तुम (प्रयाजान् च-अनुयाजान् केवलान् मे) प्रकृष्ट संगमनीय-धनात्मक अनुकृष्ट संगमनीय-ऋणात्मक तार पदार्थों को पृथक्-पृथक् हुओं को मुझ विद्युत् अग्नि के लिए (हविषः-भागम्-ऊर्जस्वन्तं दत्त) ग्राह्य वज्र के सेवन करने योग्य बेग को दो (अपां वृतम्) जलादियों से उत्पन्न हुए तेज को (ओषधीनां पुरुषम्) ओष-उष्णत्व धारण करनेवाले पदार्थों के बहुप्रकार के उष्णत्व तेज को (च) और (अग्नेः-च दीर्घम्-आयुः-अस्तु) मुझ विद्युत् अग्नि का लम्बा अयन-गतिक्षेत्र हो ॥८॥
भावार्थभाषाः - आत्मा को अर्थात् मनुष्य को इन्द्रियों द्वारा ऐसे भक्षणयोग्य पदार्थ और पेयपदार्थ लेने चाहिए, जिससे इस संसार में दीर्घजीवन मिले और इन्द्रियविषयों का सेवन ऐसे करें, जिससे संसार में फँस न सके, अपितु मोक्ष का दीर्घ जीवन मिले। एवं वैज्ञानिक जन जल ओषधि और खनिज पदार्थों द्वारा विद्युत् का आविष्कार ऐसा करें, जिससे कि उसके धनात्मक ऋणात्मक बलों के द्वारा उसका गतिक्रम लम्बा चले ॥८॥