पदार्थान्वयभाषाः - (वरुण) हे परमात्मन् ! (अग्नेः पूर्वे भ्रातरः) अङ्गों के नायक मुझ आत्मा के सजातीय मेरे जैसे पूर्व आत्माएँ (एतम्-अर्थम्) इस अर्थनीय देह को (रथी-इव-अध्वानम्-अनु-आवरीवुः) रथवान् जैसे मार्ग को घेरता है, उसकी भाँति देह को भली प्रकार घेरते रहे वे मृत हो गए, देह त्याग गए (तस्मात्-भिया) उस मृत्यु के भय से (दूरम्-आयम्) मैं दूर छिप जाता हूँ (गौरः-न क्षेप्नोः-ज्यायाः-अविजे) जैसे गौर मृग ज्या-धनुष् की डोरी से बाण फेंकनेवाले से दौड़ जाता है एवं (वरुण) जल के स्वामी (अग्नेः पूर्वे भ्रातरः) मुझ विद्युदग्नि के पूर्व सजातीय सूर्यकिरणें (एतम्-अर्थम्) इस यन्त्र विशेष को (रथी-इव-अध्वानम्-अनु-आ वरीवुः) रथवान् जैसे मार्ग को बहुत घेरता है, उसी भाँति यन्त्र विशेष को घेरते हुए विनष्ट हो जाते रहे मैं भी विनष्ट हो जाऊँ (तस्मात्-भिया) उस विनाशभय से (दूरम्-आगमम्) दूर चला जाता हूँ (गौरः-न मृगः-क्षेप्नोः-ज्यायाः-अविजे) गौर मृग जैसे धनुष् की डोरी से बाण फेंकनेवाले से भय खाकर भाग जाता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - आत्मा शरीर में जन्म लेकर आता है। जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, अपने सामने अपने बड़ों को मरते देखता है, तो ज्ञानवान् आत्मा को मृत्यु से भय लगता है, शरीर से ग्लानि होती है, परन्तु परमात्मा की ओर जैसे-जैसे चलता है, उसकी स्तुति करता है, भयरहित होता है। एवं यन्त्र में प्रयुक्त अग्नि-विद्युदग्नि क्षीण होती जाती है, परन्तु उसकी क्षीणता से यन्त्रचालन में उसका महत्त्व बढ़ता है ॥६॥