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स्त॒रीर्यत्सूत॑ स॒द्यो अ॒ज्यमा॑ना॒ व्यथि॑रव्य॒थीः कृ॑णुत॒ स्वगो॑पा । पु॒त्रो यत्पूर्व॑: पि॒त्रोर्जनि॑ष्ट श॒म्यां गौर्ज॑गार॒ यद्ध॑ पृ॒च्छान् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

starīr yat sūta sadyo ajyamānā vyathir avyathīḥ kṛṇuta svagopā | putro yat pūrvaḥ pitror janiṣṭa śamyāṁ gaur jagāra yad dha pṛcchān ||

पद पाठ

स्त॒रीः । यत् । सूत॑ । स॒द्यः । अ॒ज्यमा॑ना । व्यथिः॑ । अ॒व्य॒थीः । कृ॒णु॒त॒ । स्वऽगो॑पा । पु॒त्रः । यत् । पूर्वः॑ । पि॒त्रोः । जनि॑ष्ट । श॒म्याम् । गौः । ज॒गा॒र॒ । यत् । ह॒ । पृ॒च्छान् ॥ १०.३१.१०

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:31» मन्त्र:10 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:28» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:3» मन्त्र:10


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत् सद्यः-अज्यमाना सूत स्तरीः) जैसे समय पर वृषभ द्वारा गर्भित हुई गौ बच्चे को उत्पन्न करते ही प्रसव से निवृत्त होती हुई (व्यथिः) पीड़ित होती है, (स्वगोपा-अव्यथीः कृणुत) गोपाल के द्वारा अपने को पीड़ारहित करती है, ऐसे ही (यत् पित्रोः पूर्वः पुत्रः-अजनिष्ट) द्युलोक और पृथ्वीलोक का पुत्ररूप प्रथम से या श्रेष्ठ जीव उत्पन्न होता है, वह (शम्यां गौः-जगार यत्-ह पृच्छान्) अध्ययन कर्म में गतिशील हुआ जाग जाता है और परमात्मा की अर्चना करता है, संसार की पीड़ा से छूट जाता है ॥१०॥
भावार्थभाषाः - संसार में मनुष्य या जीव शरीरधारण करते हैं। सांसारिक या औत्पत्तिक पीड़ा प्रत्येक को होनी अनिवार्य है, परन्तु जब वेदाध्ययन कर परमात्मा की अर्चना करता है, तो सब पीड़ाओं से छूट जाता है ॥१०॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत् सद्यः-अज्यमाना सूत स्तरीः) यदा तत्कालं कालमनु वृषभेण सिच्यमाना सती गौर्वत्सं प्रसूतेऽथ निवृत्तप्रसवा सा (व्यथिः स्वगोपा-अव्यथीः कृणुत) व्यथमाना सती स्वगोप्त्रा रक्षकेणात्मानं व्यथारहितां करोति, वचनव्यत्ययोऽत्र छान्दसः (यत् पित्रोः पूर्वः पुत्रः-अजनिष्ट) यतो द्यावापृथिव्योः पूर्वः श्रेष्ठः पुत्रो जीवो जातः सन् (शम्यां गौः-जगार यत्-ह-पृच्छान्) अध्ययनकर्मणि गतिशीलो जागृतवान् तदा परमात्मानमर्चति “पृच्छतिरर्चतिकर्मेति” [निघं०३।१४] तदा स संसारजन्म-पीडातो मुच्यते ॥१०॥