पदार्थान्वयभाषाः - (देवासः-आयन्) शल्यचिकित्सक विद्वान् या संग्रामविजय के इच्छुक योद्धा आते हैं (परशून्-अबिभ्रन्) छेदक शस्त्रों को धारण करते हैं (वना वृश्चन्तः) काष्ठों का छेदन करते हुओं की भाँति (विड्भिः-अभि-आयन्) उपचारार्थ अन्न ओषधियों के साथ-उन्हें लेकर आते हैं या प्रशस्त राजाओं-सेनाओं के साथ आक्रमण करते हैं (वक्षणासु) नाड़ियों या नदियों में (सुद्र्वं निदधतः) सम्यक् द्रवणशील-बहनेवाले रस शुद्ध रक्त को या शत्रुरक्त को ग्रहण करते हुए (यत्र) जिस अङ्ग में या प्रदेश में (कृपीटम्) जल रक्तरहित जल अर्थात् रक्त के स्थान पर जल को (तत्-अनु दहन्ति) उस अङ्ग को औषधों से दग्ध करते हैं, फिर नया अङ्ग आने के लिए या उस राष्ट्र प्रदेश में शत्रुओं द्वारा नष्ट किए जल शोधते हैं, क्षत-विक्षत हुए शत्रुशरीर को जलाशय पर दग्ध करते हैं ॥८॥
भावार्थभाषाः - प्राणीशरीर के दूषित हो जाने पर शल्यचिकित्सक तथा ओषधचिकित्सक नाड़ियों में बहते हुए रक्त के स्थान पर जलवाले अङ्ग को शस्त्र से छेद कर या औषधों से दग्ध कर स्वस्थ बनाते हैं तथा राष्ट्र बाह्य उपद्रव से ग्रस्त हो, तो शस्त्रधारी योद्धाओं और विविध सेनाओं के द्वारा उपद्रवकारियों को नष्ट करके क्षत-विक्षत किये हुए शत्रुओं के शरीरों को जलाशय के समीप भस्म कर दें ॥८॥