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स रोरु॑वद्वृष॒भस्ति॒ग्मशृ॑ङ्गो॒ वर्ष्म॑न्तस्थौ॒ वरि॑म॒न्ना पृ॑थि॒व्याः । विश्वे॑ष्वेनं वृ॒जने॑षु पामि॒ यो मे॑ कु॒क्षी सु॒तसो॑मः पृ॒णाति॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa roruvad vṛṣabhas tigmaśṛṅgo varṣman tasthau varimann ā pṛthivyāḥ | viśveṣv enaṁ vṛjaneṣu pāmi yo me kukṣī sutasomaḥ pṛṇāti ||

पद पाठ

सः । रोरु॑वत् । वृ॒ष॒भः । ति॒ग्मऽशृ॑ङ्गः । वर्ष्म॑न् । त॒स्थौ॒ । वरि॑मन् । आ । पृ॒थि॒व्याः । विश्वे॑षु । ए॒न॒म् । वृ॒जने॑षु । पा॒मि॒ । यः । मे॒ । कु॒क्षी इति॑ । सु॒तऽसो॑मः । पृ॒णाति॑ ॥ १०.२८.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:28» मन्त्र:2 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:20» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सः-वृषभः-तिग्मशृङ्गः-रोरुवत्) वह तीक्ष्ण शक्तिवाला-चेतनावाला आत्मा या तीक्ष्ण शस्त्रवाला राजा शरीर में चेतनता का वर्षक, राष्ट्र में सुख का वर्षक भलीभाँति घोषित करता है कि मैं आया-प्राप्त हुआ (पृथिव्याः-वरिमन् वर्ष्मन्-आतस्थौ) शरीर के अतिश्रेष्ठ जीवनरसवर्षक हृदयप्रदेश में विराजमान होता है या राष्ट्रभूमि के सुखवर्षक राज-आसन पर विराजमान होता है। यह परोक्षदृष्टि से आत्मा या राजा का कथन है। अब अध्यात्म दृष्टि से कहा जाता है (यः-मे कुक्षी सुतसोमः पृणाति) जो शरीर में वर्त्तमान उपासनारस को तय्यार करनेवाला प्राण मेरे दो पार्श्वों भोग और अपवर्ग को पूर्ण करता है अथवा राष्ट्र में वर्तमान उपहार देनेवाला राष्ट्रमन्त्री मेरे सभा सेना दो पार्श्वों को पूर्ण करता है (विश्वेषु वृजनेषु एनं पामि) सारे बलप्रसङ्गों में इसकी मैं आत्मा या राजा रक्षा करता हूँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - शरीर के अन्दर चेतनाशक्तिमान् आत्मा चेतनत्व की अङ्गों में वृष्टि करता हुआ अपने को घोषित करता है-सिद्ध करता है। शरीर के अन्दर सर्वश्रेष्ठ हृदयप्रदेश में विराजमान रहता है। जीवन प्राण उसके भोग और अपवर्ग में साधन बनता है, ऐसे साधनरूप प्राण की वह रक्षा करता है तथा राष्ट्र में शस्त्रशक्तिमान् सुखवर्षक राजा राष्ट्रवासी प्रजाओं में सुख की वृष्टि करता हुआ अपने को प्रसिद्ध करता है। राष्ट्रभूमि के राजशासन पद पर विराजमान होता है। उसका राजमन्त्री सभाभाग और सेनाभाग को परिपुष्ट बनाता है। ऐसे राजमन्त्री की वह रक्षा करता है ॥२॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सः वृषभः तिग्मशृङ्गः-रोरुवत्) स तीक्ष्णशक्तिकश्चेतनावान्-आत्मा यद्वा तीक्ष्णशासको राजा शरीरे चेतनत्ववर्षकः, राष्ट्रे सुखवर्षकः-भृशं घोषयति-यदहमागतः (पृथिव्याः वरिमन् वर्ष्मन् आतस्थौ) शरीरस्य “यच्छरीरं पुरुषस्य सा पृथिवी” [ऐ० आ० २।३।३] यद्वा राष्ट्रभूमेः सुखवर्षकेऽतिश्रेष्ठे “वरिमन् अतिशयेन श्रेष्ठः” [ऋ० ६।६३।११ दयानन्दः] हृदयप्रदेशे राजासने वा तिष्ठति। इति परोक्षेणेन्द्र उक्तः। अथाध्यात्मभावेनोच्यते (यः मे कुक्षी सुतसोमः पृणाति) यः शरीरे प्राणो वसुक्रो मम कुक्षी-उभे पार्श्वे भोगापवर्गौ-उपासनारसो सम्पादितो येन स पूरयति यद्वा राष्ट्रे सभासेने-उभे पार्श्वे दत्तोपहारः पूरयति (विश्वेषु वृजनेषु-एनं पामि) सर्वेषु बलप्रसङ्गेषु “वृजनं बलनाम” [निघ० २।९] एतमहमात्मा राजा वा रक्षामि ॥२॥