पदार्थान्वयभाषाः - (अभूः-उ-औक्षीः) हे स्वयम्भू परमात्मन् ! तू ही संसार के बीजभूत अव्यक्त प्रकृति को सींचता है तथा (आयुः-आनट्) आयुवाले-जीवन धारण के स्वभाववाले आत्मा को व्याप्त है, इसलिये (दर्षत्-नु-पूर्वः) तू प्रथम से तुरन्त संसार-बीज अव्यक्त प्रकृति को छिन्न-भिन्न-विभक्त करता है (अपरः-नु दर्षत्) अन्य उस बीज को क्या कोई छिन्न-भिन्न कर सकता है अर्थात् नहीं (यः-अस्य रजसः पारे विवेष) जो इस संसार तथा संसार के बीजरूप प्रकृति के पार-बाहर भी व्याप्त हो रहा है (तं द्वे पवस्ते न परिभूतः) उस तुझ परमात्मा को वे दोनों प्रापणशील आश्रय पानेवाले जड़ प्रकृति और चेतन जीवात्मा स्ववश नहीं कर सकते, तू ही उन दोनों को स्ववश करता है। तू ही संसार के बीज प्रकृति को विभक्त करता है और तू ही जीवात्मा को व्याप्त है तथा व्याप्त होकर कर्म को प्रदान करता है ॥७॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा संसार के बीजरूप अव्यक्त प्रकृति को सींचता है। अपनी शक्ति से सींचकर वृक्ष बनाता है और जीवन धारण्वाले आत्मा को भी व्याप्त होता है। परमात्मा संसार तथा प्रकृति के भी बाहर है। इन दोनों प्रकृति और जीवात्मा को स्ववश किये हुए है, इसीलिये वह प्रकृति को विभक्त कर संसार को बनाने में और जीवात्मा को कर्मफल देने में समर्थ है ॥७॥