ज्ञान प्राप्ति में सर्वप्रथम
पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार ऋषि बननेवाले लोग (देवानाम्) = पृथिवीस्थ ग्यारह, अन्तरिक्षस्थ ग्यारह और द्युलोकस्थ ग्यारह, इस प्रकार कुल तेंतीस देवों के (माने) = मापने में, ज्ञान प्राप्त करने में (प्रथमाः अतिष्ठन्) = प्रथम स्थान में स्थित होते हैं, अर्थात् ये लोग देवों का ऊँचे से ऊँचा ज्ञान प्राप्त करते हैं, इनके ज्ञान से ही तो इन्हें महादेव का ज्ञान प्राप्त होगा । [२] इस प्रकार ज्ञान के द्वारा (कृन्तत्रात्) = वासनाओं के काटने के द्वारा (एषाम्) = इनके (उपराः) = निचले प्रदेश [Lower regions] (उद् आयन्) = ऊर्ध्वगतिवाले होते हैं। सबसे नीचे मूलाधार चक्र हैं, यहाँ स्थित कुण्डलिनी शक्ति ऊर्ध्वगतिवाली होती हुई सर्वोत्कृष्ट देश में पहुँचती है। [३] अब (त्रयः अनूपा:) = इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि ये तीनों शरीर में क्रम से प्रविष्ट होकर व्याप्त होनेवाले (पृथिवीम्) = शरीर को (तपन्ति) = खूब दीप्त करते हैं । इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि सभी ज्ञान की वृद्धि के द्वारा शरीर को प्रकाशमय बनाते हैं। [४] (द्वा) = प्राण और अपान ये दोनों (पुरीषम्) = शरीर का पालन व पोषण करनेवाले (बृबूकम्) = जल को, रेतः रूप में स्थित अप् तत्त्व को (वहतः) = धारण करनेवाले होते हैं । प्राणापान की साधना से रेतः कणों की ऊर्ध्वगति होती है, इन रेतः कणों का शरीर में ही धारण होता है। शरीर में धारित रेतः कण सब प्रकार की उन्नति के कारण बनते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम देवों का ज्ञान प्राप्त करें। चक्रों की ऊर्ध्वगति करते हुए शरीर को दीप्त करें, प्राणसाधना द्वारा रेतः कणों को शरीर में ही धारण करें।