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वि क्रो॑श॒नासो॒ विष्व॑ञ्च आय॒न्पचा॑ति॒ नेमो॑ न॒हि पक्ष॑द॒र्धः । अ॒यं मे॑ दे॒वः स॑वि॒ता तदा॑ह॒ द्र्व॑न्न॒ इद्व॑नवत्स॒र्पिर॑न्नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi krośanāso viṣvañca āyan pacāti nemo nahi pakṣad ardhaḥ | ayam me devaḥ savitā tad āha drvanna id vanavat sarpirannaḥ ||

पद पाठ

वि । क्रो॒श॒नासः॑ । विष्व॑ञ्चः । आ॒य॒न् । पचा॑ति । नेमः॑ । न॒हि । पक्ष॑त् । अ॒र्धः । अ॒यम् । मे॒ । दे॒वः । स॒वि॒ता । तत् । आ॒ह॒ । द्रुऽअ॑न्नः । इत् । व॒न॒व॒त् । स॒र्पिःऽअ॑न्नः ॥ १०.२७.१८

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:27» मन्त्र:18 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:18


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वि क्रोशनासः-विष्वञ्चः-आयन्) विविध प्रकार से परमात्मा का आह्वान करते हुए भिन्न-भिन्न मानसिक गतिवाले जीव संसार में आते हैं-जन्म पाते हैं, उनमें (नेमाः पचाति) कोई वर्ग परमात्मज्ञान को अपने अन्दर आत्मसात् करता है (अर्धः-नहि पक्षत्) कोई वर्ग परमात्मज्ञान को आत्मसात् करने में समर्थ नहीं होता, (अयं देवः सविता) यह उत्पादक देव परमात्मा (तत्-मे-आह) उस ज्ञान को मेरे लिये कहता है, (इत्) जो ही (द्र्वन्नः सर्पिरन्नः) जो वनस्पति फल अन्न का खानेवाला तथा घृत दूध आदि का भोक्ता उपासक शुद्धाहारी वह परमात्मा को और उसके ज्ञान को (वनवत्) सम्यक् सेवन करता है ॥१८॥
भावार्थभाषाः - भिन्न-भिन्न प्रकार के मानसिक गतिवाले जन विविध प्रकार से परमात्मा को पुकारते हुए या उसकी प्रार्थना करते हुए संसार में जन्म पाते हैं। कुछ परमात्मा और उसके ज्ञान को अपने अन्दर धारण कर पाते हैं और कुछ नहीं। उत्पादक परमात्मा अपने ज्ञान का उपदेश करेगा, ऐसी आशा रखता हुआ कोई आत्मा आता है। दूध घृत वनस्पति फल अन्न का भोक्ता सात्त्विक आहारी जन परमात्मा के ज्ञान को आत्मसात् करता है ॥१८॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वि क्रोशनासः विष्वञ्चः-आयन्) विविधप्रकारेण परमात्मानमाह्वयन्तः-भिन्नभिन्नमानसगतिका जीवा संसारे आगच्छन्ति तेषु (नेमः पचाति) कश्चन वर्गः परमात्मज्ञानं स्वान्तरे पचति-आत्मसात् करोति (अर्धः नहि पक्षत्) अर्धः कश्चन तेषु जीवेषु परमात्मज्ञानं न पचति न पक्तुं समर्थो भवति (अयं देवः सविता) एष उत्पादको देवः परमात्मा (तत् मे आह) तज्ज्ञानं स्वज्ञानं यन्मह्यमुपदिशति (इत्) य एव (द्र्वन्नः सर्पिरन्नः) यो वनस्पतिः-फलान्नभोजी “वनस्पतयो वै द्रुः” [तै० ३।१।८] घृतदुग्धादिभोजी खलूपासकः शुद्धाहारः स तं परमात्मानं तज्ज्ञानं वा (वनवत्) वनति सम्भजते ॥१८॥