देवता: लिङ्गोत्ताः (गर्भार्थाशीः)
              ऋषि: त्वष्टा गर्भकर्त्ता विष्णुर्वा प्राजापत्यः 
              छन्द: निचृदनुष्टुप्
              स्वर: गान्धारः 
            
            हि॒र॒ण्ययी॑ अ॒रणी॒ यं नि॒र्मन्थ॑तो अ॒श्विना॑ । तं त॒त गर्भं॑ हवामहे दश॒मे मा॒सि सूत॑वे ॥
                                    अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
                  
                                  मन्त्र उच्चारण
                  hiraṇyayī araṇī yaṁ nirmanthato aśvinā | taṁ te garbhaṁ havāmahe daśame māsi sūtave ||
                  पद पाठ 
                  
                                हि॒र॒ण्ययी॒ इति॑ । अ॒रणी॒ इति॑ । यम् । निः॒ऽमन्थ॑तः । अ॒श्विना॑ । तम् । ते॒ । गर्भ॑म् । ह॒वा॒म॒हे॒ दश॒मे मा॒सि सूत॑वे ॥ १०.१८४.३
                  ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:184» मन्त्र:3 
                  | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:42» मन्त्र:3 
                  | मण्डल:10» अनुवाक:12» मन्त्र:3
                
              
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                    ब्रह्ममुनि
                   पदार्थान्वयभाषाः -  (हिरण्ययी-अरणी) सुवर्णमय दो अरणी काष्ठ के समान (अश्विनौ) सूर्य-चन्द्रमा-स्त्रीपुरुषगत रजवीर्य (यं निर्मन्थतः) जिस गर्भ को निष्पादित करते हैं (ते) हे स्त्रि ! तेरे लिए (तं गर्भम्) उस गर्भ को (दशमे मासि) दशवें मास में (सूतवे हवामहे) प्रसव होने बाहर आने को आमन्त्रित करते हैं-यत्न करते हैं ॥३॥              
              
              
                            
                  भावार्थभाषाः -  आकाश के सूर्य और चन्द्रमा ये दो अरणियाँ हैं, संसार की वस्तुओं के उत्पन्न होने में निमित्त हैं, इसी प्रकार पुरुष और स्त्री के वीर्य और रज ये दो अरणियों के समान गर्भ को उत्पन्न करती हैं और दशवें मास में पूर्णाङ्ग हो जाता है बाहर प्रसव होने के लिए, उसे यत्न से प्रसूत करना चाहिये ॥३॥              
              
              
                            
              
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                    ब्रह्ममुनि
                   पदार्थान्वयभाषाः -  (हिरण्ययी-अरणी) सौवर्णमयी द्वे काष्ठे इव (अश्विनौ यं निर्मन्थतः) सूर्याचन्द्रमसौ स्त्रीपुरुषगतौ वीर्यरजोभूतौ यं गर्भं निष्पादयतः (ते) हे स्त्रि ! तुभ्यम् (तं गर्भं दशमे मासि सूतवे हवामहे) तं गर्भं पुष्टं जातं दशमे मासे प्रसोतुं बहिरागन्तुं हवामहे-आमन्त्रयामहे यतामहे ॥३॥              
              
              
              
              
                            
              
            
                  