पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो विद्युन्मय वायु (सद्यः-चित्) शीघ्र ही यथावसर तत्काल ही (शवसा) वेग से (अपः-ततान) जलों को तानता है, (सूर्यः-इव) सूर्य जैसे (ज्योतिषा) निज ज्योति के द्वारा पृथिवीस्थ जलाशयों से जल खींच कर अन्तरिक्ष में तानता है, ऐसे ही विद्युन्मय वायु तानता है (पञ्चकृष्टीः) अन्तरिक्ष से पाँचों मनुष्यों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और वनवासी के प्रति वृष्टिजलों को पृथिवी पर फैलाता है (अस्य रंहिः) इस विद्युन्मय वायु की गति (शतसाः सहस्रसाः) शत-सौ स्थानों को सहस्र स्थानों को प्राप्त होनेवाली या शत घोड़ों तथा सहस्र घोड़ों की शक्ति जैसी है (न वरन्ते स्म) इसे कोई रोक नहीं सकते (युवतिं शर्यां न) जैसे धनुष में नियुक्त बलवाली शरयुक्ता बाण को कोई रोक नहीं सकता, जब तक वह लक्ष्य को नहीं बींध लेती ॥३॥
भावार्थभाषाः - विद्युद्युक्त वायु मेघों को पृथिवी पर बिखेर देता है, जो सभी मनुष्यों के लिए हितकर है, उसकी गतिशक्ति सभी स्थानों पर काम करती है या सैकड़ों सहस्रों घोड़ों जितनी बलवाली है, वह होम से पुष्ट होकर अच्छी हितकारी वर्षा करता है ॥३॥