सरस्वती के साथ समान रथ में
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (सरस्वति) = विद्या की अधिष्ठात्रि देवि ! (या) = जो तू (सरथम्) = हमारे साथ एक ही रथ में [समानं रथं] (ययाथ) = गति करती हो । अर्थात् हमारा यह शरीर रूप रथ हमारा वाहन तो है ही । जब हम इसे सरस्वती का भी वाहन बनाते हैं, अर्थात् स्वाध्याय आदि में प्रवृत्त होते हैं तो उस समय हम सरस्वती के साथ एक ही रथ में बैठे होते हैं । [२] हे (देवि) = प्रकाश की पुंज व हमारे जीवन को प्रकाशित करनेवाली सरस्वती तू (स्व-धाभिः) = आत्मतत्त्व के धारण की प्रक्रियाओं से अर्थात् प्रतिदिन के प्रातः - सायं ध्यान से तथा (पितृभिः) = ज्ञानप्रद आचार्यरूप पितरों के साथ (मदन्ती) = तू हर्ष का अनुभव करती हुई होती है। हमें स्वाध्याय के साथ आत्मतत्त्व का धारण- उपासना तथा आचार्यों का सत्संग अवश्य करना चाहिए। [३] हे सरस्वति ! (अस्मिन् बर्हिषि) = हमारे इस वासनाशून्य हृदय में (आसद्य) = आसीन होकर (मादयस्व) = हमें आनन्दित कर । 'हम ज्ञान की रुचि वाले बनें' यही सरस्वती का हृदयों में आसीन होना है। जब कभी भी यह हो सका, हम एक विशिष्ट आनन्द का अनुभव करेंगे। [४] 'हम स्वाध्याय की रुचि वाले बनें' इसके लिये तू (अस्मे) = हमारे लिये (अनमीवा) = सब प्रकार के रोगों से रहित (इषः) = अन्नों को (आधेहि) = स्थापित कर । इन अन्नों का सेवन करते हुए हम सत्त्वशुद्धि के द्वारा, ज्ञान का वर्धन करनेवाले बनें।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हमारा जीवन स्वाध्याय सम्पन्न हो। हम सात्त्विक अन्नों का प्रयोग करें ।