पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार 'सधस्थ' अर्थात् यज्ञवेदि में एकत्रित होकर सब यज्ञ करते हैं, और उसके बाद स्वाध्याय के द्वारा (सरस्वती) = विद्या की सरस्वती देवी का आराधन प्रारम्भ होता है । (देवयन्तः) = दिव्यगुणों को अपनाने की कामना करते हुए और दिव्यगुणों के द्वारा दिव्यता के पुंज प्रभु को प्राप्त करने की कामना करते हुए लोग (सरस्वतीम्) = विद्या की अधिदेवता को (हवन्ते) = पुकारते हैं । स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान की वृद्धि होती है, इस ज्ञान से जीवन में पवित्रता का संचार होता है । [२] (अध्वरे तायमाने) = यज्ञों का विस्तार होने पर सरस्वतीं सरस्वती को पुकारते हैं। यह सरस्वती ही यज्ञों को 'अ-ध्वर' बनाये रखती है। ज्ञान के कारण ही यज्ञों में भी पवित्रता बनी रहती है। ज्ञान की कमी के साथ यज्ञों में रूढ़ियों का महत्त्व अधिक हो जाता है मध्यकाल में तो स्वाध्याय की कमी के कारण यज्ञ 'अ-ध्वर' ही न रहे। इन अ-ध्वरों में अधिकाधिक हिंसा का प्रारम्भ हो गया। [३] इसलिए (सुकृतः) = पुण्यशाली लोग (सरस्वतीम्) = सरस्वती को (अह्वयन्त) = पुकारते हैं । वस्तुतः यह सरस्वती ही उन्हें 'सुकृत्' बनाती है। 'नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते 'ज्ञान की मनुष्य को पवित्र बनाता है। [४] (सरस्वती) = यह ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता (दाशुषे) = आत्मापर्ण करनेवाले के लिये (वार्यं दात्) = सब वरणीय वस्तुओं को प्राप्त कराती हैं। हमें चाहिए यह कि अपना सारा अवकाश स्वाध्याय के लिए अर्पित करें। यही सरस्वती के प्रति आत्मापर्ण होगा। यदि हम ऐसा करेंगे तो हमें सब आवश्यक वस्तुएँ अवश्य प्राप्त होगी हमें किसी प्रकार की कमी न रहेगी।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सरस्वती हमें देव बनाती है । हमारे यज्ञों को हिंसाशून्य बनाकर सचमुच 'अध्वर' कहलाने योग्य करती है। हमें पुण्यात्मा बनाती है और वरणीय वस्तुओं को देती है ।