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प्रप॑थे प॒थाम॑जनिष्ट पू॒षा प्रप॑थे दि॒वः प्रप॑थे पृथि॒व्याः । उ॒भे अ॒भि प्रि॒यत॑मे स॒धस्थे॒ आ च॒ परा॑ च चरति प्रजा॒नन् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prapathe pathām ajaniṣṭa pūṣā prapathe divaḥ prapathe pṛthivyāḥ | ubhe abhi priyatame sadhasthe ā ca parā ca carati prajānan ||

पद पाठ

प्रऽप॑थे । प॒थाम् । अ॒ज॒नि॒ष्ट॒ । पू॒षा । प्रऽप॑थे । दि॒वः । प्रऽप॑थे । पृ॒थि॒व्याः । उ॒भे इति॑ । अ॒भि । प्रि॒यऽत॑मे । स॒धऽस्थे॑ । आ । च॒ । परा॑ । च॒ । च॒र॒ति॒ । प्र॒ऽजा॒नन् ॥ १०.१७.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:17» मन्त्र:6 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:24» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पूषा) पोषणकर्ता परमात्मा (पथां प्रपथे-अजनिष्ट) मार्गों के सांसारिक जीवनयात्रा के पथाग्र पर मानवमात्र को समर्थ बनाता है (दिवः-प्रपथे पृथिव्याः प्रपथे) मोक्षमार्ग के लक्ष्य पर तथा पुनर्जन्म के लक्ष्य पर सफल और समर्थ बनाता है (उभे प्रियतमे सधस्थे) दोनों प्रियतमों अर्थात् अभ्युदय और सधस्थ-समानस्थान मोक्ष में (अभि) अभिप्राप्त होकर (प्रजानन्) अनुभव करता हुआ (आचरति पराचरति) अनुष्ठान करता है और पुनर्वैराग्य से त्यागता भी है ॥६॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपासकों को जीवनयात्रा के पथाग्र पर समर्थ बनाता है। मोक्षमार्ग में भी और संसार के मार्ग में भी जो सुख प्राप्त होता है, आत्मा वह परमात्मा की कृपा से अभ्युदय और निःश्रेयस को अनुभव करता है। संसार में संसार के सुखों का सेवन करता है और वैराग्य से उनको त्यागकर मोक्ष को प्राप्त करता है ॥६॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पूषा) पोषणकर्ता परमात्मा (पथां प्रपथे-अजनिष्ट) मार्गाणामैहिकजीवनमार्गाणां पथाग्रभागे लक्ष्ये मानवमजनयत्-समर्थं करोति ‘अन्तर्गतणिजर्थः’ (दिवः प्रपथे पृथिव्याः प्रपथे) मोक्षमार्गस्य लक्ष्ये पुनर्जन्मनि च सफलं समर्थं करोति (उभे प्रियतमे सधस्थे) उभे-अभ्युदयं निःश्रेयसञ्चानुकूलसहस्थाने (अभि) अभ्याप्य (प्रजानन्) अनुभवन् सुखेन यापयन्-यापयितुं (आचरति पराचरति) अनुतिष्ठति पुनर्वैराग्येण त्यजति च ॥६॥