पदार्थान्वयभाषाः - (मर्त्येभ्यः-अमृताम्-अपागूहन्) मरणधर्मवाले मनुष्यादि के लिये उससे भिन्न अनश्वर प्रकृति को परमात्मा की रचनशक्तियाँ या सूर्य की रश्मियाँ रात्रि को छिपा देती हैं-भोगप्राप्ति के लिए (सवर्णां कृत्वी विवस्वते-अददुः) सूर्य-उदयानन्तर उषा की जैसी वर्णवाली प्रभा को करके ये रश्मियाँ सूर्य के लिये दे देती हैं दिवस आभा के रूप में, इसी प्रकार प्रकृति अपनी जैसी जड़ सृष्टि को व्यापक परमात्मा के लिये उसकी रचनशक्तियाँ स्थापित करती हैं (उत-अश्विनौ-अभरत्) अपि च अश्विनौ-अर्थात् ज्योति से अन्य, रस से अन्य, आग्नेय और सोम्य विभागों को धारण करता है (तत्-यत् आसीत्) वह जो यह थी (द्वा मिथुना सरण्यूः-अजहात्) दो मिथुनों-एक साथ प्रकट होनेवालों को सरणशील उषा मध्यम अर्थात् वायु और माध्यमिक अर्थात् वाणी-विश्ववाणी विद्युत् को अन्तरिक्ष में छोड़ा या उस फैलनेवाली प्रकृति ने आग्नेय और सोम्यमयी सृष्टि को प्रकट किया ॥२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों के हितार्थ सूर्य की रश्मियों ने उषा को भी छिपा दिया या परमात्मा की शक्तियों ने प्रकृति को भी विलीन कर दिया। प्रकृति जड़ है उससे जड़ सृष्टि का विस्तार होता है-उषा प्रकाशवती है, उससे दिन का प्रकाश होता है। सृष्टि में वायु और विद्युत् प्रकट हो जाते हैं ॥२॥