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यो॒ग॒क्षे॒मं व॑ आ॒दाया॒हं भू॑यासमुत्त॒म आ वो॑ मू॒र्धान॑मक्रमीम् । अ॒ध॒स्प॒दान्म॒ उद्व॑दत म॒ण्डूका॑ इवोद॒कान्म॒ण्डूका॑ उद॒कादि॑व ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yogakṣemaṁ va ādāyāham bhūyāsam uttama ā vo mūrdhānam akramīm | adhaspadān ma ud vadata maṇḍūkā ivodakān maṇḍūkā udakād iva ||

पद पाठ

यो॒ग॒ऽक्षे॒मम् । वः॒ । आ॒ऽदाय॑ । अ॒हम् । भू॒या॒स॒म् । उ॒त्ऽत॒मः । आ । वः॒ । मू॒र्धान॑म् । अ॒क्र॒मी॒म् । अ॒धः॒ऽप॒दात् । मे॒ । उत् । व॒द॒त॒ । म॒ण्डूकाः॑ऽइव । उ॒द॒कात् । म॒ण्डूकाः॑ । उ॒द॒कात्ऽइ॑व ॥ १०.१६६.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:166» मन्त्र:5 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:24» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:12» मन्त्र:5


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वः) हे सपत्नों-मेरे राज्य अधिकार के विरोधी जनों ! तुम्हारा (योगक्षेमम्) योग अर्थात् राज्य से मासिक वा वार्षिक लाभ क्षेमरक्षण पूर्व से परंपरा से रक्षित है भूमि या खेत का धन ये दोनों (अहम्-आदाय) मैं राष्ट्रीयकरण की नीति से स्वायत्त कर-जब्त करके (उत्तमः-भूयासम्) उग्रतम तुम्हारे ऊपर हो जाऊँ (वः-मूर्धानम्-अक्रमीम्) तुम्हारे मूर्धास्थान पर-पद पर आक्रमण करूँ-छीन लूँ (मे-अधस्पदात्) तुम लोग मेरे पादतल से-पैरों के नीचे से (मण्डूकाः-उदकात्-इव) मेंढकों के समान जलाशय से बोलो, प्रार्थना करो, मेरे गुण गाओ (मण्डूकाः-उदकात्-इव) मेंढक जल से अर्थात् जल में रक्षा मानते हुए ऊँचे बोलते हैं, उसी भाँति मेरे अधीनत्व को इच्छा से स्वीकार नहीं तो बल से ही मेरे पैरों के नीचे देश में तुम लोग ऊँचे बोलोगे-रोवोगे, मेंढक जैसे जल के बिना रोते हैं, वैसे मेरे आश्रय को छोड़ करके दण्ड भोगोगे ॥५॥
भावार्थभाषाः - राजद्रोही प्रजा के उद्दण्ड लोगों को राजा ठीक मार्ग का उपदेश दे, यदि वे ठीक मार्ग पर न आवें, तो उनकी मासिक या वार्षिक वृत्ति को बन्द करना तथा पूर्व से चली आई सम्पत्ति भूभाग और क्षेत्रभाग को छीनकर स्वाधीन कर लेना चाहिये और उन्हें दण्ड देकर अपने वश में करना चाहिये ॥५॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वः) हे सपत्नाः-मम राज्याधिकारस्य विरोधिनः ! युष्माकम् (योगक्षेमम्) योगो राज्याद् या प्राप्तिर्मासिकी वार्षिकी वा तां तथा क्षेमं रक्षणं पूर्वतः परम्परातो रक्षितमस्ति भौमं क्षेत्रादिकं धनं तदुभयम् (अहम्-आदाय) राष्ट्रीयकरणनीत्या स्वायत्तीकृत्याहम् (उत्तमः-भूयासम्) उग्रतमो युष्माकमुपरि भवेयमित्याशासे (वः-मूर्धानम्-अक्रमीम्) युष्माकं मूर्धानमाक्राम्येयम् (मे-अधस्पदात्) यूयं मम पादयोरधः “अधस्पदम्” अव्ययीभाव-समासः ‘सप्तम्यां विभक्तौ’ अधस्पदं स्थानं तस्मात्-पादोरधःप्रदेशात्-पादतलात् (मण्डूकाः-इव-उदकात्) मण्डूका इव जलाज्जलाशयात् खलूद्वदत प्रार्थयध्वम्-मम गुणगानं कुरुत (मण्डूकाः-उदकात्-इव) मण्डूका जलाज्जले रक्षां मन्यमानाः-उद्वदन्ति तद्वत्-अतो ममाधीनत्वमिच्छया स्वीकुरुत, नो चेत्, बलादेव ममपादयोरधोदेशे यूयमुद्वक्ष्यथ मण्डूका उदकाद् यथा-उदकाश्रयेण विना उद्वदन्ति-उद्रुदन्ति तथा ममाश्रयं विहायोद्रोदिष्यथ दण्डं भोक्ष्यध्वे ॥५॥