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देवा॑: क॒पोत॑ इषि॒तो यदि॒च्छन्दू॒तो निॠ॑त्या इ॒दमा॑ज॒गाम॑ । तस्मा॑ अर्चाम कृ॒णवा॑म॒ निष्कृ॑तिं॒ शं नो॑ अस्तु द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

devāḥ kapota iṣito yad icchan dūto nirṛtyā idam ājagāma | tasmā arcāma kṛṇavāma niṣkṛtiṁ śaṁ no astu dvipade śaṁ catuṣpade ||

पद पाठ

देवाः॑ । क॒पोतः॑ । इ॒षि॒तः । यत् । इ॒च्छन् । दू॒तः । निःऽऋ॑त्याः । इ॒दम् । आ॒ऽज॒गाम॑ । तस्मै॑ । अ॒र्चा॒म॒ । कृ॒णवा॑म । निःऽकृ॑तिम् । शम् । नः॒ । अ॒स्तु॒ । द्वि॒ऽपदे॑ । शम् । चतुः॑ऽपदे ॥ १०.१६५.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:165» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:23» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:12» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में दूत के साथ सद्व्यवहार करना चाहिए, दूत ही परराष्ट्र के साथ मित्रता कराता है शत्रुता भी, वह भोजन में होमयज्ञ में सत्कार करने योग्य है, आदि विषय हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) हे संग्राम जीतने के इच्छुक विद्वानों ! (इषितः) दूसरों से प्रेरित हुआ भेजा हुआ (कपोतः-दूतः) भाषा वेश की दृष्टि से विविध रंगवाला विचित्रभाषी सन्देशवाहक अथवा हमारे द्वारा भेजा हुआ दूत (यत्-इच्छन्) जिस वृत्त को सूचित करने की इच्छा रखता हुआ (निर्ऋत्याः) परभूमि से-सीमा से तथा अपनी भूमि से (इदम्-आ जगाम) इस स्थान को प्राप्त हुआ है (तस्मै-अर्चाम) उसके लिए सत्कार करते हैं (निष्कृतिं-कृणवाम) उसका प्रतिकार या समाधान करें (नः) हमारे (द्विपदे शम्) दो पैरवाले मनुष्यादि के लिये कल्याण हो (चतुष्पदे-शम्-अस्तु) हमारे चार पैरवाले पशु के लिए कल्याण हो ॥१॥
भावार्थभाषाः - संग्राम को जीतने के इच्छुक विद्वान् लोग संग्राम से पूर्व परराष्ट्र भूमि से आये दूत को अपने राष्ट्र की भूमि से प्रस्थान करनेवाले दूत को, जो किसी विशेष सन्देश को सुनाने के लिए आता है या सुनाने के लिए जाता है, उसका सत्कार करना चाहिये ॥१॥
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ब्रह्ममुनि

अत्र सूक्ते दूतेन सह सद्व्यवहारः कर्तव्यः, दूत एव परराष्ट्रेण सह मैत्रीं कारयति स एव शत्रुतां चापि, भोजने होमयज्ञे च सत्करणीयः सः।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) हे विद्वांसो जिगीषवः ! (इषितः-कपोतः-दूतः) परैः प्रेषितोऽत्र यद्वाऽस्माभिः प्रेषितः परत्र कपोतो भाषावेशदृष्ट्या विविधवर्णो दूतः सन्देशवाहकः (यत्-इच्छन्) यद्वृत्तं सूचयितुमिच्छन् (इदं-निर्ऋत्याः-आजगाम) इदं खलु परभूमितः-स्वभूमितो वा “निर्ऋतिः पृथिवीनाम” [निघ० १।१] आगच्छति (तस्मै-अर्चाम) तस्मै सत्कारं कुर्मः (निष्कृतिं कृणवाम) तस्य प्रतीकारं समाधानं वा कुर्मः (नः-द्विपदे शं चतुष्पदे शम्-अस्तु) यथाऽस्माकं मनुष्याय कल्याणं तथा गवादये च कल्याणं भवेत् ॥१॥